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________________ क्षीरार्णव अ. ११८ क्रमांक अ. २० भावार्थ — मानतुंग प्रासाद्र जहाँ है वहाँ सदा शुभ ऐसे जिनेन्द्र प्रभु बिराजते हैं । उसकी जगती परिघी-भ्रमवाली है । मानतुंग प्रासाद वैराटी ज्ञाति छंद या विमान जातिमें मंजरी रेखावाला शिखर करना । ऐसा प्रासाद करानेवाले को अक्षयपद के लाभकी प्राप्ति होती है । ३१-३२. शिखरोर्ध्वे पंचदंड स्कंधे क्यादि जिनेश्वरम् । २५० ઉપલા ચાર ઉશ્રૃંગાના આમલસારામાં ચાર અને મૂળ શિખરને મળી પાંચ ધ્વજાઈંડ ચામુખને કરવા અને શિખરના બાંધણા ઉપર જિનેશ્વરની મૂર્તિ કરવી. ૩૩, उपरके चार उरुशृंगों का आमलसारे में चार और मूल शिखर सब मिलकर पाँच ध्वजादण्ड चौमुखको करना और शिखरके स्कंध के ऊपर जिनेश्वरकी मूर्ति करना । ३३. चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे अष्टादश विभाजिते । कर्ण त्रिभाग विस्तारं पल्लवी पदमेव च ॥ १५ ॥ निर्गमं तत्समं कार्य प्रतिकर्णद्वयो भवेत् । निष्क्रांत समंवक्ष्ये कर्णि भागाश्च विस्तरः ||१६|| निवेशं च समं कुर्यात् भद्रार्ध भाग द्वयो भवेत् । निर्गमं पद सार्द्धे च उभयो वामदक्षिणे ॥ १७ ॥ ૧૮ પ્રાસાદના ચેારસ ક્ષેત્રના અઢાર ભાગ કરવા કરવા. તેમાં રેખા ત્રણ ભાગની પલ્લવી (નઢી) એક ભાગની સમહલ, એવા એ પ્રતિક મએ ભાગના તે પણ સમદંલ કરવાં. નદી ખૂણી એક ભાગની સમદલ અરધુ ભદ્ર બે ભાગનુ અને તેના નીકાળે દોઢ ભાગના રાખવે એમ એ ઉત્તર ડાબી જમણી તરફ એમ यारे तर ४२. १५-१६-१७ मुगु ૧ પલ્લવી ૨ પ્રતિરથ ૧ નદી ૐ ભદ્ર ૯ ભાગ ૯ ભાગ प्रासादके चोरस क्षेत्रके अठारह भाग करना। उनमें रेखा तीन भाग की पल्लवी (नंदी) एक भागकी सभदल, ऐसे दो प्रतिकर्ण दो दो भाग के, वे भी समदल करना । नंदी कोनी एक भाग की शमअर्धा भद्र दो भागका और उसका निकाला डेढ़ भागका रखना। इस तरह दो उत्तर बायीं दायीं तरफ ऐसे चारों तरफ करना । १५-१६ - १७. कर्णे नन्दनं सर्वेषां नवभृङ्गे रथोपरि । नंन्दि श्रीवत्समेकैकं रथिका भद्रभूषितं ॥ १८॥ रथे कण पुनः कार्य नव पञ्च परि भ्रमं । १७ कर्णि तिलकं प्रदातव्यं कूटकारादिकं क्रमात् ॥ १९॥ पाठान्तर १७ कंटकारादिकं
SR No.008421
Book TitleKshirarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherBalwantrai Sompura
Publication Year
Total Pages416
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Art, & Culture
File Size13 MB
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