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________________ ६२ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार - कलश [ अनुष्टुप ] अज्ञानमयभावानामज्ञानी व्याप्य भूमिकाः। द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानामेति हेतुताम् ।। २३-६८।। [ दोहा ] अज्ञानी अज्ञानमय भावभूमि में व्याप्त । इस कारण द्रव बंध के हेतुपने को प्राप्त । । ६८ ।। [ भगवान् श्री कुन्दकुन्द - खंडान्वय सहित अर्थ:- ऐसा कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीवकी और मिथ्यादृष्टि जीवकी बाह्य क्रिया तो एकसी है परंतु द्रव्य परिणमनविशेष है, सो विशेषके अनुसार दिखलाते हैं। सर्वथा तो प्रत्यक्ष ज्ञानगोचर है। 'अज्ञानी द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानाम् हेतुताम् एति ' [ अज्ञानी ] मिथ्यादृष्टि 33 जीव, [द्रव्यकर्म ] धाराप्रवाहरूप निरन्तर बँधते हैं - पुद्गलद्रव्यकी पर्यायरूप कार्मणवर्गणा ज्ञानावरणादि कर्मपिण्डरूप बँधते हैं, जीवके प्रदेशके साथ एकक्षेत्रावगाही हैं, परस्पर बन्ध्यबन्धकभाव भी है। उनके [ निमित्तानां ] बाह्य कारणरूप हैं [ भावानाम् ] मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्व, राग, द्वेषरूप अशुद्ध परिणाम । भावार्थ इस प्रकार है - जैसे कलशरूप मृत्तिका परिणमती है, जैसे कुम्भकारका परिणाम उसका बाह्य निमित्त कारण है, व्याप्य - व्याप्यकरूप नहीं है उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मपिण्डरूप पुद्गलद्रव्य स्वयं व्याप्य - व्याप्यकरूप है । तथापि जीवका अशुद्ध चेतनारूप मोह, राग, द्वेषादि परिणाम बाह्य निमित्तकारण हैं, व्याप्य - व्याप्यकरूप तो नहीं है। उस परिणामके [ हेतुताम् ] कारणरूप [ एति ] आप परिणमा है। भावार्थ इस प्रकार है कि कोई जानेगा कि जीवद्रव्य तो शुद्ध है, उपचारमात्र कर्मबंधका कारण होता है सो ऐसा तो नहीं है। आप स्वयं मोह, राग, द्वेष अशुद्धचेतनापरिणामरूप परिणमता है, इसलिए कर्मका कारण है। मिथ्यादृष्टि जीव अशुद्धरूप जिस प्रकार परिणमता है उस प्रकार कहते हैं - ' ' अज्ञानमयभावानाम् भूमिकाः प्राप्य ' [अज्ञानमय ] मिथ्यात्वजाति ऐसी है [ भावानाम् ] कर्मके उदयकी अवस्था उनकी, [ भूमिका: ] जिसके पानेपर अशुद्ध परिणाम होते हैं ऐसी संगतिको [ प्राप्य ] प्राप्तकर मिथ्यादृष्टि जीव अशुद्ध परिणामरूप परिणमता है। भावार्थ इस प्रकार है - द्रव्यकर्म अनेक प्रकारका है, उसका उदय अनेक प्रकारका है। एक कर्म ऐसा है जिसके उदयसे शरीर होता है, एक कर्म ऐसा है जिसके उदयसे मन, वचन, काय होता है, एक कर्म ऐसा है जिसके उदयसे सुख - दुःख होता है। ऐसे अनेक प्रकारके कर्मका उदय होनेपर मिथ्यादृष्टि जीव कर्मके उदयको आपरूप अनुभवता है, इससे राग, द्वेष, मोहपरिणाम होते हैं, उनके द्वारा नूतन कर्मबंध होता है। इस कारण मिथ्यादृष्टि जीव अशुद्ध चेतन परिणामका कर्ता है। क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवके शुद्ध स्वरूपका अनुभव नहीं है, इसलिए कर्मके उदय कार्यको आपरूप अनुभवता है । जिस प्रकार मिथ्यादृष्टिके कर्मका उदय है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टिके भी है, परन्तु सम्यग्दृष्टि जीवको शुद्ध स्वरूपका अनुभव है, इस कारण कर्मके उदयको कर्मजातिरूप अनुभवता है, आपको शुद्धस्वरूप अनुभवता है। इसलिए कर्मके उदयमें रंजायमान होता नहीं, इसलिए मोह, राग, द्वेषरूप नहीं परिणमता है, इसलिए कर्मबंध नहीं होता है। इसलिए सम्यग्दृष्टि अशुद्ध परिणामका कर्ता नहीं है। ऐसा विशेष है ।। २३ -६८।। Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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