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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] अजीव-अधिकार [शार्दूलविक्रीडत] वर्णाद्यैः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो नामूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः। इत्यालोच्य विवेचकैः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा व्यक्तं व्यञ्जितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्ब्यताम्।। १०-४२।। [सवैया इकतीसा] मूर्तिक अमूर्तिक अजीव द्रव्य दो प्रकार ,इसलिए अमूर्तिक लक्षण न बन सके। सोचकर विचारकर भलीभांति ज्ञानियों ने, कहा वह निर्दोष लक्षण जो बन सके। अतिव्याप्ति अव्याप्ति दोषोंसे विरहित, चैतन्यमय उपयोग लक्षण है जीव का। अतः अवलम्ब लो अविलम्ब इसका ही, क्योंकि यह भाव ही है जीवन इस जीव का।।४२।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "विवेचकैः इति आलोच्य चैतन्यम् आलम्ब्यताम्'' [विवेचकैः ] जिन्हें भेदज्ञान है ऐसे पुरुष [इति] जिस प्रकारसे कहेंगे उस प्रकारसे [आलोच्य] विचारकर [ चैतन्यम् ] चेतनमात्रका [आलम्ब्यताम्] अनुभव करो। कैसा है चैतन्य ? "समुचितं'' अनुभव करने योग्य है। और कैसा है ? ''अव्यापि न'' जीव द्रव्यसे कभी भिन्न नहीं होताहै। 'अतिव्यापि न'' जीवसे अन्य हैं जो पाँच द्रव्य उनसे अन्य है। और कैसा है ? '' व्यक्तं'' प्रगट है। और कैसा है ? "व्यजितजीवतत्त्वम्'' [व्यजित] प्रगट किया है [ जीवतत्त्वम् ] जीवके स्वरूपको जिसने, ऐसा है। और कैसा है ? "अचलं'' प्रदेशकम्पसे रहित है।''ततः जगत् जीवस्य तत्त्वं अमूर्तत्वं उपास्य न पश्यति'' [ततः] उस कारणसे [जगत् ] सर्व जीवराशि [ जीवस्य तत्त्वं] जीवके निज स्वरूपको [अमूर्तत्वम् ] स्पर्श, रस, गंध, वर्णगुणसे रहितपना [ उपास्य] मानकर [ न पश्यति] नहीं अनुभवता है । भावार्थ इस प्रकार है कि कोईजानेगा कि 'जीव अमूर्त' ऐसा जानकर अनुभव किया जाता है सो ऐसे तो अनुभव नहीं। जीव अमूर्त तो है परंतु अनुभवकालमें ऐसा अनुभवता है कि 'जीव चैतन्यलक्षण। 'यतः अजीवः द्वेधा अस्ति'' [ यतः] जिस कारण से [अजीवः] अचेतन द्रव्य [ द्वेधा अस्ति] दो प्रकारका है। बे दोप्रकार कौनसे हैं ? "वर्णाद्यैः सहितः तथा विरहितः'' [ वर्णाद्यैः] वर्ण, रस, गंध और स्पर्शसे [ सहितः] संयुक्त है, क्योंकि एक पुद्गलद्रव्य ऐसा भी है। [ तथा विरहितः] तथा वर्ण, रस, गंध और स्पर्शसे रहित भी है, क्योंकि धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य और आकाशद्रव्य ये चार द्रव्य और भी हैं, वे अमूर्तद्रव्य कहे जाते हैं। वह अमूर्तपना अचेतनद्रव्यको भी है। इसलिए अमूर्तपना जानकर जीवका अनुभव नहीं किया जाता, चेतन जानकर जीवका अनुभव किया जाता है ।। १०-४२।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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