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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] अजीव-अधिकार __भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार जल और कीचड़ जिस कालमें एकत्र मिले हुए हैं उसी काल जो स्वरूपका अनभुव किया जाय तो कीचड़ जलसे भिन्न है, जल अपने स्वरूप है, उसी प्रकार संसार-अवस्थामें जीव कर्म बंधपर्यायरूपसे एक क्षेत्रमें मिला है। उसी अवस्थामें जो शुद्ध स्वरूपका अनुभव किया जाय तो समस्त कर्म जीवस्वरूपसे भिन्न है। जीवद्रव्य स्वच्छस्वरूपरूप जैसा कहा वैसा है। ऐसी बुद्धि जिस प्रकासे उत्पन्न हुई उसी को कहते हैं-'यत्पार्षदान् प्रत्याययत्'' [ यत् ] जिस कारणसे [ पार्षदान् ] गणधर मुनीश्वरोंको [प्रत्याययत् ] प्रतीति उत्पन्न कराकर । किस कारणसे प्रतीति उत्पन्न हुई वही कहते हैं "जीवाजीवविवेकपुष्कलदृशा'' [ जीव ] चेतन्यद्रव्य और [ अजीव ] जड़कर्म-नोकर्म-भावकर्म उनके [ विवेक ] भिन्न-भिन्नपनेसे [ पुष्कल ] विस्तीर्ण [दृशा] ज्ञानदृष्टिके द्वारा। जीव और कर्म का भिन्नभिन्न अनुभव करने पर जीव जैसा कहा गया है वैसा है।।३३।। (मालिनी) विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम्। हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो ननु किमनुपलब्धिर्भाति किं चोपलब्धिः।। २-३४।। [हरिगीत] हे भव्यजन! क्या लाभ है इस व्यर्थ के बकवाद से । अब तो रुको निज को लखो अध्यात्म के अभ्यास से।। यदि अनवरत छहमास हो निज आतमा की साधना। तो आतमा की प्राप्ति हो सन्देह इसमें रंच ना।।३४।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "विरम अपरेण अकार्यकोलाहलेन किम्'' [विरम] भो जीव ! विरक्त हो, हठ मत कर, [ अपरेण] मिथ्यात्वरूप हैं [अकार्य] कर्मबंधको करते है [कोलाहलेन किम् ] ऐसे जो झूठे विकल्प उनसे क्या ? उसका विवरण-कोई मिथ्यादृष्टि जीव शरीरको जीव कहता है, कोई मिथ्यादृष्टि जीव आठ कर्मोंको जीव कहता है, कोई मिथ्यादृष्टि जीव रागादि सूक्ष्म अध्यवसायको जीव कहता है-इत्यादि रूपसे नाना प्रकारके बहुत विकल्प करता है। भो जीव! उन समस्त ही विकल्पों को छोड़, क्योंकि वे झूठे हैं। "निभृतः सन् स्वयं एकम् पश्य'' [ निभृतः] एकाग्ररूप [सन् ] होता हुआ [ एकम्] शुद्ध चिद्रूपमात्रका [ स्वयम् ] स्वसंवेदन प्रत्यक्षरूपसे [ पश्य ] अनुभव कर।"षण्मासम्'' विपरीतपना जिस प्रकारसे छूटे उसी प्रकार छोड़कर। "अपि'' बारंबार बहुत क्या कहें ? ऐसा अनुभव करनेपर स्वरूप प्राप्ति है, इसीको कहते हैं- 'ननु हृदयसरसि पुंसः अनुपलब्धिः किम् भाति'' [ ननु ] भो जीव! Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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