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________________ Version 001: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates जीव-अधिकार कहान जैन शास्त्रमाला ] भावार्थ इस प्रकार है कि शरीरादि परद्रव्योंके साथ जीवकी एकत्वबुद्धि विद्यमान है, वह सूक्ष्मकालमात्र भी आदर करने योग्य नहीं है । कैसा है मोह ? आजन्मलीढं '' [ आजन्म ] अनादिकालसे [लीढं ] लगाहुआ है। 'ज्ञानम् रसयतु'' [ ज्ञानम् ], शुद्ध चैतन्यवस्तुको [ रसयतु] स्वानुभव प्रत्यक्षरूपसे आस्वादो। कैसा है ज्ञान ? ' रसिकानां रोचनं'' [ रसिकानां ] शुद्धस्वरूपके अनुभवशील सम्यग्दृष्टि जीवोंको [ रोचनं ] अत्यंत सुखकारी है। और कैसा है ज्ञान ? ' उद्यत् '' त्रिकाल ही प्रकाशरूप है। .. कोई प्रश्न करता है कि ऐसा करनेपर कार्यसिद्धि कैसी होती है ? उत्तर कहते हैइह किल एक: आत्मा अनात्मना साकम् तादात्म्यवृत्तिम् क्वापि काले कथमपि न कलयति [ इह ] मोहका त्याग, ज्ञानवस्तुका अनुभव - ऐसा बारंबार अभ्यास करनेपर [ किल ] निःसंदेह [ एक: ] शुद्ध [ आत्मा ] चेतनद्रव्य [ अनात्मना ] द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म आदि समस्त विभावपरिणामोंके [ साकम् ] साथ [ तादात्म्यवृत्तिम् ] जीव और कर्मके बंधात्म एकक्षेत्रसंबंधरूप [ क्वापि ] किसी अतीत, अनागत और वर्तमानसंबंधी [ काले ] समय - घड़ी-प्रहरदिन-वर्षर्मे [ कथमपि ] किसी भी तरह [ न कलयति ] नहीं ठहरता हैं । भावार्थ इस प्रकार है कि जीवद्रव्य धातु और पाषाणके संयोगके समान पुद्गलकर्मके साथ मिला हुआ चला आरहा है, और मिला हुआ होनेसे मिथ्यात्व - राग-द्वेषरूप विभाव चेतनपरिणामसे परिणमता ही आरहा है। ऐसे परिणमते हुए ऐसी दशा नीपजी कि जीवद्रव्यका निजस्वरूप जो केवलज्ञान, केवलदर्शन, अतीन्द्रिय सुख और केवलवीर्य, उससे यह जीवद्रव्य भ्रष्ट हुआ तथा मिथ्यात्वरूप विभावपरिणामसे परिणमते हुए ज्ञानपना भी छूट गया । जीवका निज स्वरूप अनंतचतुष्टय है, शरीर, सुख, दुःख, मोह, राग, द्वेष इत्यादि समस्त पुद्गलकर्मकी उपाधि है, जीवका स्वरूप नहीं ऐसी प्रतीति भी छूट गई। प्रत छूटनेपर जीव मिथ्यादृष्टि हुआ । मिथ्यादृष्टि होता हुआ ज्ञानावरणादि कर्मबंध करणशील हुआ। उस कर्मबंधका उदय होनेपर जीव चारों गतियोंमें भमता है। इस प्रकार संसारकी परिपाटी है। इस संसारमें भ्रमण करते हुए किसी भव्य जीवका जब निकट संसार आ जाता है तब जीव सम्यक्त्व को ग्रहण करता है। सम्यक्त्व को ग्रहण करनेपर पुद्गलपिंडरूप मिथ्यात्वकर्मोंका उदय मिटता है तथा मिथ्यात्वरूप विभावपरिणाम मिटता है । विभावपरिणामके मिटनेपर शुद्धस्वरूपका अनुभव होता है। ऐसी सामग्री मिलनेपर जीवद्रव्य पुद्गलकर्मसे तथा विभावपरिणामसे सर्वथा भिन्न होता है। जीवद्रव्य अपने अनंतचतुष्टयको प्राप्त होता है । दृष्टांत ऐसा है कि जिस प्रकार सुवर्णधातु पाषाणमें ही मिली चली आ रही है तथापि अग्नि का संयोग पाकर पाषाण से सुवर्ण जुदा होता है ।। २२ ।। Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com २१
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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