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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १० समयसार-कलश [भगवान् श्री कुन्द-कुन्द भावार्थ इस प्रकार है - अनुभव प्रत्यक्ष ज्ञान है। प्रत्यक्ष ज्ञान है अर्थात वेद्य-वेदकभावसे आस्वादरूप है और वह अनुभव परसहायसे निरपेक्ष है। ऐसा अनुभव यद्यपि ज्ञानविशेष है तथापि सम्यक्त्वके साथ अविनाभूत है, क्योंकि यह सम्यग्दृष्टिके होता है, मिथ्यादृष्टिके नहीं होता है ऐसा निश्चय है। ऐसा अनुभव होनेपर जीववस्तु अपने शुद्ध स्वरूपको प्रत्यक्षरूपसे आस्वादती है। इसलिए जितने कालतक अनुभव होता है उतने कालतक वचनव्यवहार सहज ही बन्द रहता है, क्योंकि वचनव्यवहार तो परोक्षरूपसे कथक है। यह जीव तो प्रत्यक्षरूप अनुभवशील है, इसलिए [अनुभवकालमें ] वचनव्यवहार पर्यंत कुछ रहा नहीं। कैसी है जीववस्तु ? ''सर्वंकषे'' [ सर्वं] सब प्रकारके विकल्पोंका [कषे] क्षयकरणशील [क्षय करनेरूप स्वभाववाली] है। भावार्थ इस प्रकार है - जैसे सूर्यप्रकाश अंधकारसे सहजही भिन्न है वैसे अनुभव भी समस्त विकल्पोंसे रहित ही है। यहाँपर कोई प्रश्न करेगा कि अनुभवके होनेपर कोई विकल्प रहता है कि जिनका नाम विकल्प है वे समस्त ही मिटते हैं ? उत्तर इस प्रकार है कि समस्त ही विकल्प मिट जाते हैं, उसीको कहते हैं- 'नयश्रीरपि न उदयति, प्रमाणमपि अस्तमेति, न विद्मः निक्षेपचक्रमपि क्वचित् याति, अपरम् किम् अभिदध्मः'' जो अनुभवके आनेपर प्रमाण-नय-निक्षेप ही झूठा है। वहाँ रागादि विकल्पोंकी क्या कथा। भावार्थ इस प्रकार है कि- जो रागादि तो झूठा ही है, जीवस्वरूपसे बाह्य है। प्रमाणनय-निक्षेपरूप बुद्धिके द्वारा एक ही जीवद्रव्यका द्रव्य-गुण-पर्यायरूप अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप भेद किया जाता है, वे समस्त झूठे हैं। इन सबके झूठे होनेपर जो कुछ वस्तुका स्वाद है सो अनुभव है। [प्रमाण] युगपद् अनेक धर्मग्राहक ज्ञान, वह भी विकल्प है, [नय] वस्तुके किसी एक गुणका ग्राहक ज्ञान, वह भी विकल्प है और [ निक्षेप] उपचारघटनारूप ज्ञान, वह भी विकल्प है। भावार्थ इस प्रकार है कि अनादि कालसे जीव अज्ञानी है, जीवस्वरूपको नहीं जानता है। वह जब जीवसत्त्वकी प्रतीति आनी चाहे तब जैसे ही प्रतीति आवे तैसे ही वस्तु-स्वरूप साधा जाता है। सो साधना गुण-गुणीज्ञान द्वारा होती है, दूसरा उपाय तो कोई नहीं है। इसलिए वस्तुस्वरूपका गुणगुणीभेदरूप विचार करनेपर प्रमाण-नय-निक्षेपरूप विकल्प उत्पन्न होते हैं। वे विकल्प प्रथम अवस्थामें भले ही हैं, तथापि स्वरूपमात्र अनुभवनेपर झूठे हैं।। ९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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