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________________ Version 001: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला ] 66 ' यदस्यात्मनः इह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् दर्शनम् नियमात् एतदेव सम्यग्दर्शनम्'' [ यत् ] जिस कारण [ अस्यात्मनः] यही जीवद्रव्य [ द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् ] सकल कर्मोपाधिसे रहित जैसा है [ इह दर्शनम्] वैसा ही प्रत्यक्षपने उसका अनुभव [नियमात् ] निश्चयसे [ एतदेव सम्यग्दर्शनम् ] यही सम्यग्दर्शन है। भावार्थ इस प्रकार है- सम्यग्दर्शन जीवका गुण है। वह गुण संसार - अवस्थामें विभावरूप परिणमा है। वही गुण जब स्वभावरूप परिणमे तब मोक्षमार्ग है। विवरण - सम्यक्त्वभाव होनेपर नूतन ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मास्रव मिटता है, पूर्वबद्ध कर्म निर्जरता है; इस कारण मोक्षमार्ग है। यहाँपर कोई आशंका करेगा कि मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र इन तीनोंके मिलने से होता है। उत्तर इस प्रकार है- शुद्ध जीवस्वरूपका अनुभव करनेपर तीनों ही हैं। कैसा है शुद्ध जीव ? 'शुद्धनयतः एकत्वे नियतस्य '' [ शुद्धनयतः ] निर्विकल्प वस्तुमात्र की दृष्टिसे देखते हुए [ एकत्वे ] शुद्धपना [ नियतस्य ] उस रूप है। भावार्थ इस प्रकार है - जीवका लक्षण चेतना है। वह चेतना तीन प्रकारकी है- एक ज्ञानचेतना, एक कर्मचेतना, एक कर्मफलचेतना । उनमेंसे ज्ञानचेतना शुद्ध चेतना है, शेष अशुद्ध चेतना है। उनमेंसे अशुद्ध चेतनारूप वस्तुका स्वाद सर्व जीवोंको अनादिसे प्रगट ही 66 * जीव-अधिकार । उसरूप अनुभव सम्यक्त्व नहीं । शुद्ध चेतनामात्र वस्तुस्वरूपका आस्वाद आवे तो सम्यक्त्व और कैसी है जीववस्तु ? " व्याप्तुः'' अपने गुण- पर्यायोंको लिये हुए है । इतना कहकर शुद्धपना दृढ़ किया है। कोई आशंका करेगा कि सम्यक्त्व - गुण और जीववस्तुका भेद है कि अभेद है ? उत्तर ऐसा है कि अभेद है- ' ' आत्मा च तावानयम्'' [ अयम् ] यह [ आत्मा] जीववस्तु [ तावान् ] सम्यक्त्वगुणमात्र है।। ६ ।। [ अनुष्टुप ] अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत्। नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति ।। ७॥ [ दोहा ] शुद्ध नयाश्रित आतमा, प्रगटे ज्योतिस्वरूप। नवतत्त्वों में व्याप्त पर, तजे न एकस्वरूप।।७।। 66 ७ 1 " खंडान्वय सहित अर्थ:- 'अतः तत् प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति' [ अतः ] यहाँ से आगे [ तत् ] वही [ प्रत्यग्ज्योतिः] शुद्ध चेतनामात्र वस्तु [ चकास्ति ] शब्दों द्वारा युक्तिसे कही जाती है। कैसी है वस्तु ? — शुद्धनयायत्तम्'' [ शुद्धनय ] वस्तुमात्रके [ आयत्तं ] आधीन है। भावार्थ इस प्रकार है जिसका अनुभव करनेपर सम्यक्त्व होता है उस शुद्ध स्वरूपको कहते है : - ' ' यदेकत्वं न मुञ्चति ' [यत्] जो शुद्ध वस्तु [ एकत्वं ] शुद्धपनेको [ न मुज्जति ] नहीं छोड़ती है। यहाँपर कोई आशंका करेगा कि जीववस्तु जब संसारसे छूटती है तब शुद्ध होती है। उत्तर इस प्रकार है जीववस्तु द्रव्यदृष्टिसे विचार करनेपर त्रिकाल ही शुद्ध है । वही कहते हैं - ' ' नवतत्त्वगतत्वेऽपि '' [ नवतत्त्व ] जीव-अजीव-आस्रव-बंध-संवर - निर्जरा - मोक्ष - पुण्य-पाप [ गतत्वेऽपि ] उसरूप परिणत है तथापि शुद्धस्वरूप है। भावार्थ इस प्रकार है जैसे अग्नि दाहक लक्षण वाली है, वह काष्ठ, तृण, कण्डा आदि समस्त दाह्यको दहती है, दहती हुई अग्नि दाह्याकार होती है, पर उसका विचार है कि जो Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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