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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २२६ समयसार-कलश [ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द ज्ञानशक्तिमात्र वस्तु उसके [ अस्तितया] अस्तित्वपनेके द्वारा। क्या करके ? "निपुणं निरूप्य" ज्ञानमात्र जीव वस्तुका अपने अस्तित्वसे किया है अनुभव जिसने ऐसा होकर। किसके द्वारा ? 'विशुद्धबोधमहसा'' [ विशुद्ध ] निर्मल जो [बोध] भेदज्ञान उसके [ महसा] प्रतापके द्वारा। कैसा है ? ' सद्यः समुन्मजता'' उसी कालमें प्रगट होता है।। ६-२५२।। [शार्दूलविक्रीडित] सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य पुरुष दुर्वासनावासितः स्वद्रव्यभ्रमतः पशुः किल परद्रव्येषु विश्राम्यति। स्याद्वादी तु समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां जानन्निर्मलशुद्धबोधमहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रयेत्।।७-२५३ ।। [हरिगीत] सब द्रव्यमय निज आतमा यह जगत की दुर्वासना। बस रत रहे परद्रव्य में स्व द्रव्य के भ्रमबोध से ।। परद्रव्य के नास्तित्व को स्वीकार सब द्रव्य में । निज ज्ञान बल से स्याद्वादी रत रहें निजद्रव्य में।।२५३ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि कोई मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है जो वस्तुको द्रव्यरूप मानता है, पर्यायरूप नहीं मानता है, इसलिए समस्त ज्ञेयवस्तु ज्ञानमें गर्भित मानता है। ऐसा कहता है -उष्णको जानता हुआ ज्ञान उष्ण है, शीतलको जानता हुआ ज्ञान शीतल है। उसके प्रति उत्तर इस प्रकार है कि ज्ञान ज्ञेयका ज्ञायकमात्र तो है, परंतु ज्ञेयका गुण ज्ञेयमें है, ज्ञानमें ज्ञेयका गुण नहीं है। वही कहते हैं- “किल पशुः विश्राम्यति'' [किल ] अवश्यकर [ पशुः] एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव [ विश्राम्यति] वस्तुस्वरूपको साधनेके लिए असमर्थ होता हुआ अत्यन्त खेदखिन्न होता है। किस कारणसे ? ''परद्रव्येषु स्वद्रव्यभ्रमतः'' [ परद्रव्येषु ] ज्ञेयको जानते हुए ज्ञेयकी आकृतिरूप परिणमता है ज्ञान, ऐसी जो ज्ञानकी पर्याय, उसमें [स्वद्रव्य] निर्विकल्प सत्तामात्र ज्ञानवस्तु होनेकी [भ्रमतः] होती है भ्रान्ति। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार उष्णको जानते हुए उष्णकी आकृतिरूप ज्ञान परिणमता है ऐसा देखकर ज्ञानका उष्णस्वभाव मानता है मिथ्यादृष्टि जीव। कैसा होता हुआ ? "दुर्वासनावासितः" [दुर्वासना] अनादिका मिथ्यात्व संस्कार उससे [वासित:] हुआ है स्वभावसे भ्रष्ट ऐसा। ऐसा क्यों है ? "सर्वद्रव्यमयं पुरुषं प्रपद्य'' [ सर्वद्रव्य ] जितने समस्त द्रव्य हैं उनका जो द्रव्यपना[ मयं] उसमय जीव है अर्थात् उतने समस्त स्वभाव जीवमें है ऐसा [ पुरुषं] जीव वस्तुको [प्रपद्य ] प्रतीतिरूप मानकर। ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव मानता है। "तु स्याद्वादी स्वद्रव्यम् आश्रयेत् एव'' [ तु] एकान्तवादी मानता है वैसा नहीं है, स्याद्वादी मानता है वैसा है। यथा- [स्याद्वादी] अनेकान्तवादी [स्वद्रव्यम् आश्रयेत् ] ज्ञानमात्र जीव वस्तु ऐसा साध सकता है-अनुभव कर सकता है। सम्यग्दृष्टि जीव [एव] ऐसा ही है। कैसा है स्याद्वादी ? ''समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां जानन्'' [ समस्तवस्तुषु] ज्ञानमें प्रतिबिंबित हुआ है समस्त Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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