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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १९८ समयसार-कलश [भगवान् श्री कुन्द-कुन्द [ मालिनी] यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूति: कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र। स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ।। २८-२२०।। [रोला] राग-द्वेष पैदा होते हैं इस आतम में , उसमें परद्रव्यों का कोई दोष नहीं है। यह अज्ञानी अपराधी है इनका कर्ता, यह अबोध हो नष्ट कि मैं तो स्वयं ज्ञानहूँ।।२२०।। खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि जीवद्रव्य संसारअवस्थामें राग द्वेष मोह अशुद्ध चेतनारूप परिणमता है सो वस्तुके स्वरूपका विचार करनेपर जीवका दोष है, पुद्गलद्रव्यका दोष कुछ नहीं है, कारण कि जीवद्रव्य अपने विभाव-मिथ्यात्वरूप परिणमता हुआ अपने अज्ञानपनेको लिए हुए राग द्वेष मोहरूप आप परिणमता है; जो कभी शुद्ध परिणतिरूप होकर शुद्धस्वरूपके अनुभवरूप परिणवे, राग द्वेष मोहरूप न परिणवे तो पुद्गलद्रव्यका क्या चारा [ इलाज ] है। वही कहते हैं- 'इह यत् रागद्वेषदोषप्रसूतिः भवति तत्र कतरत् अपि परेषां दूषणं नास्ति'' [इह ] अशुद्ध अवस्थामें [ यत् ] जो कुछ [ रागद्वेषदोषप्रसूतिः भवति] रागादि अशुद्ध परिणति होती है [तत्र] उस अशुद्ध परिणतिके होनेमें [ कतरत् अपि] अति ही थोड़ा भी [ परेषां दूषणं नास्ति] जितनी ज्ञानावरणादि कर्मका उदय अथवा शरीर मन वचन अथवा पंचेन्द्रिय भोगसामग्री इत्यादि बहुत सामग्री है उसमें किसी का दूषण तो नहीं है। तो क्या है ? 'अयम् स्वयम् अपराधी तत्र अबोधः सर्पति' [ अयम्] संसारी जीव [ स्वयम् अपराधी] आप मिथ्यात्वरूप परिणमता हुआ शुद्ध स्वरूपके अनुभवसे भ्रष्ट है। कर्मके उदयसे हुआ है अशुद्ध भाव, उसको आपरूप जानता है [ तत्र] इस प्रकार अज्ञानका अधिकार होनेपर [अबोध: सर्पति] राग- द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणति होती है। भावार्थ इस प्रकार है कि जीव आप मिथ्यादृष्टि होता हुआ परद्रव्यको आप जानकर अनुभवे अथवा रागद्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणतिका होना कौन रोके ? इसलिए पुद्गलकर्मका कौन दोष ? “विदितं भवतु'' ऐसा ही विदित हो कि रागादि अशुद्ध परिणतिरूप जीव परिणमता है सो जीवका दोष है, पुद्गलद्रव्यका दोष नहीं। अब अगला विचार कुछ है कि नहीं है ? उत्तर इस प्रकार है - अगला यह विचार है कि “अबोधः अस्तं यातु' [ अबोधः ] मोह-राग-द्वेषरूप है जो अशुद्ध परिणति उसका [अस्तं यातु] विनाश होओ। उसका विनाश होनेसे "बोधः अस्मि'' मैं शुद्ध चिद्रूप अविनश्वर अनादिनिधन जैसा हूँ वैसा विद्यमान ही हूँ। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवद्रव्य शुद्धस्वरूप है। उसमें मोह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणति होती है। उस अशुद्ध परिणतिके मेटनेका उपाय यह कि सहज ही द्रव्य शुद्धत्वरूप परिणवे तो अशुद्ध परिणति मिटे। और तो कोई करतूति-उपाय नहीं है। उस अशुद्ध परिणतिके मिटनेपर जीवद्रव्य जैसा है वैसा है, कुछ घट-बढ़ तो नहीं।। २८-२२०।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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