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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार १७९ [वसन्ततिलका] ऐकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः। तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम्।। ९-२०१।। [रोला] जब कोई सम्बन्ध नहीं है दो द्रव्यों में, तब फिर कर्ताकर्म भाव भी कैसे होगा। इसीलिए तो मैं कहता हूँ निज को जानो, सदा अकर्ता अरे जगतजन अरे मुनिजन।।२०१।। खंडान्वय सहित अर्थ:- ''तत् वस्तुभेदे कर्तृकर्मघटना न अस्ति'' [तत्] तिस कारणसे [ वस्तुभेदे] जीवद्रव्य चेतनस्वरूप पुद्गल द्रव्य अचेतनस्वरूप ऐसे भेदको अनुभवते हुए [ कर्तृकर्मघटना] — जीवद्रव्य कर्ता पुद्गलपिण्ड कर्म ऐसा व्यवहार [ न अस्ति ] सर्वथा नहीं है। तो कैसा है ? ''मुनयः जनाः तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु'' [ मुनयः जनाः] सम्यग्दृष्टि हैं जो जीव वे [ तत्त्वम् ] जीवस्वरूको [ अकर्तृ पश्यन्तु] 'कर्ता नहीं है ऐसा अनुभवो-आस्वादो। किस कारणसे ? ''यतः एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्धं सकलोऽपि सम्बन्धः निषिद्धः एव'' [ यतः] जिस कारणसे [एकस्य वस्तुनः] शुद्ध जीवद्रव्यका [अन्यतरेण सार्धं ] पुद्गल द्रव्यके साथ [ सकल: अपि] द्रव्यरूप, गुणरूप अथवा पर्यायरूप [ सम्बन्धः ] एकत्वपना [ निषिद्धः एव ] अतीत अनागत वर्तमान कालमें वर्जा है। भावार्थ इस प्रकार है कि अनादि-निधन जो द्रव्य जैसा है वह वैसा ही है, अन्य द्रव्यके साथ नहीं मिलता है, इसलिए जीवद्रव्य पुद्गलकर्मका अकर्ता है।। ९-२०१।। [वसन्ततिलका] ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेममज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः। कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्मकर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः।। १०-२०२।। [रोला] इस स्वभाव के सहज नियम जो नहीं जानते, अरे बिचारे वे तो डुबे भवसागर में । विविध कर्म को करते हैं बस इसीलिए वे, भावकर्म के कर्ता होते अन्य कोई ना।।२०२।। ___ खंडान्वय सहित अर्थ:- "बत ते वराकाः कर्म कुर्वन्ति '' [ बत] दुःखके साथ कहते हैं कि [ ते वराका: ] ऐसी जो मिथ्यादृष्टि जीवराशि [ कर्म कुर्वन्ति] मोह राग द्वेषरूप अशुद्ध परिणति करती है। कैसी है ? 'अज्ञानमग्नमहसः'' [अज्ञान] मिथ्यात्वरूप भावके कारण [ मग्न ] आच्छादा गया है [ महसः] शुद्ध चैतन्यप्रकाश जिसका ऐसी है। "तु ये इमम् स्वभावनियमं न कलयन्ति'' [ तु] क्योंकि [ये] जो Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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