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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] मोक्ष-अधिकार १६९ [वसन्ततिलका] यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात्। तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽध: किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः।। १०-१८९ ।। [रोला प्रतिक्रमण भी अरे जहाँ विष-जहर कहा हो, अमृत कैसे कहें वहाँ अप्रतिक्रमण को ।। अरे प्रमादी लोग आधो-अध: क्यों जाते हैं ? इस प्रमाद को त्याग उर्ध्व में क्यों नहीं जाते ?।।१८९ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- ''तत् जन: किं प्रमाद्यति'' [तत् ] तिस कारणसे [जन:] समस्त संसारी जीवराशि [ किं प्रमाद्यति] क्यों प्रमाद करती है ? भावार्थ इस प्रकार है कि कृपासागर है सूत्रके कर्ता आचार्य वे ऐसा कहते हैं कि नाना प्रकारके विकल्प करनेसे साध्यसिद्धि तो नहीं है। कैसा है नाना प्रकारका विकल्प करनेवाला जन ? 'अधः अध: प्रपतन्'' जैसे जैसे अधिक क्रिया करता है, अधिक अधिक विकल्प करता है वैसे वैसे अनुभवसे भ्रष्टसे भ्रष्ट होता है। तिस कारणसे "जनः ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वम् किं न अधिरोहति'' [जन:] समस्त संसारी जीवराशि [ ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वम् ] निर्विकल्पसे निर्विकल्प अनुभवरूप [किं न अधिरोहति] क्यों नहीं परिणमता है। कैसा है जन ? 'निःप्रमादः'' निर्विकल्प है। कैसा है निर्विकल्प अनुभव ? 'यत्र प्रतिक्रमणम् विषं एव प्रणीतं" [ यत्र] जिसमें [प्रतिक्रमणम् ] पठन पाठन स्मरण चिन्तवन स्तुति वन्दना इत्यादि अनेक क्रियारूप विकल्प [विषं एव प्रणीतं] विषके समान कहा है। "तत्र अप्रतिक्रमणम् सुधाकुट: एव स्यात्'' [तत्र] उस निर्विकल्प अनुभवमें [ अप्रतिक्रमणम् ] न पढ़ना, न पढ़ाना, न वन्दना, न निन्दना ऐसा भाव [ सुधाकुटः एव स्यात् ] अमृतके निधानके समान है। भावार्थ ऐसा है कि निर्विकल्प अनुभव सुखरूप है, इसलिए उपादेय है, नाना प्रकारके विकल्प आकुलतारूप हैं, इसलिए हेय हैं।। १०१८९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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