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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] मोक्ष-अधिकार १६७ [अनुष्टुप] परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बन्येतैवापराधवान्। बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो मुनिः।। ७-१८६ ।। [दोहा] परग्राही अपराधि जन बाँधे कर्म सदीव । स्व में ही संवृत्त जो वे ना बंधे कदीव।।१८६ ।। खंडान्वय सहित अर्थः- “अपराधवान् बध्येत एव'' [अपराधवान्] शुद्ध चिद्रूप अनुभवस्वरूपसे भ्रष्ट है जो जीव वह [बध्येत] ज्ञानावरणादि कर्मों के द्वारा बाँधा जाता है। कैसा हैं ? ''परद्रव्यग्रहं कुर्वन्'' [परद्रव्य ] शरीर मन वचन रागादि अशुद्ध परिणाम उनका [ ग्रहं] आत्मबुद्धिरूप स्वामित्वको [ कुर्वन् ] करता हुआ। "अनपराधः मुनिः न बध्येत'' [अनपराधः ] कर्मके उदयके भावको आत्माका जानकर नहीं अनुभवता है ऐसा है जो [मुनिः] परद्रव्यसे विरक्त सम्यग्दृष्टि जीव [न बध्येत] ज्ञानावरणादि कर्मपिण्ड द्वारा नहीं बाँधा जाता है। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार कोई चोर परद्रव्य चुराता है, गुनहगार होता है। गुनहगार होनेसे बाँधा जाता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव परद्रव्यरूप है जो द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्म उनको आपा जान अनुभवता है, शुद्धस्वरूप अनुभवसे भ्रष्ट है। परमार्थबुद्धिसे विचार करनेपर गुनहगार है, ज्ञानावरणादि कर्मका बन्ध करता है। सम्यग्दृष्टि जीव ऐसे भावसे रहित है। कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? "स्वद्रव्ये संवृतः'' अपने आत्मद्रव्यमें संवररूप है। अर्थात् आत्मामें मग्न है।। ७–१८६ ।। [मालिनी] अनवरतमनन्तैर्बध्यते सापराधः स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु। नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो भवति निरपराध: साधु शुद्धात्मसेवी।। ८-१८७।। [हरिगीत] जो सापराधी निरन्तर वे कर्मबंधन कर रहे। जो निरपराधी वे कभी भी कर्मबंधन ना करें।। अशुद्ध जाने आतमा को सापराधी जन सदा। शुद्धात्मसेवी निरपराधी शान्ति सेवें सर्वदा।।१८७।। खंडान्वय सहित अर्थ:- ''सापराधः अनवरतम् अनन्तैः बध्यते'' [सापराधः ] परद्रव्यरूप है पुद्गलकर्म, उसको आपरूप जानता है ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव [अनवरतम् ] अखंडधाराप्रवाहरूप [अनन्तैः ] गणनासे अतीत ज्ञानावरणादिरूप बँधी है पुद्गलवर्गणा उनके द्वारा [ बध्यते] बाँधा जाता है। "निरपराधः जातु बन्धनं न एव स्पृशति'' [निरपराध:] शुद्धस्वरूपको अनुभवता है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव [ जातु] Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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