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________________ १४८ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार - कलश [च] और [ तत् परिस्पन्दात्मकं कर्म अस्तु ] ऐसा है जो आत्मप्रदेशकम्परूप मन-वचन-कायरूप तीन योग वे भी जैसा है वैसा ही रहो तथापि कर्मका बन्ध नहीं। क्या होनेपर ? [ अस्मिन् ] रागद्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणामके चले जानेपर [ तानि करणानि सन्तु ] वे भी पाँच इन्द्रियाँ तथा मन सो जैसे हैं वैसे ही रहो [ च ] और [ तत् चिद् अचिद्व्यापादनं अस्तु ] पूर्वोक्त चेतन अचेतनका घात जैसा होता था वैसा ही रहो तथापि शुद्ध परिणामके होनेपर कर्मका बन्ध नहीं है । । ३ - १६५।। [ पृथ्वी ] तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनां तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृतिः । अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां द्वयं न हि विरुद्ध्यते किमु करोति जानाति च।। ४-१६६ ।। [ हरिगीत ] तो भी निरर्गल प्रवर्त्तन तो ज्ञानियों को वर्ज है। क्यों कि निरर्गल प्रवर्त्तन तो बन्धका स्थान है ।। वांच्छा रहित जो प्रवर्त्तन वह बंध विरहित जानये । जानना करना परस्पर विरोधी ही मानिये ।।१६६।। [ भगवान् श्री कुन्दकुन्द - — खंडान्वय सहित अर्थ:- '' तथापि ज्ञानिनां निरर्गलं चरितुम् न इष्यते'' [ तथापि ] यद्यपि कार्मणवर्गणा, मन-वचन-काययोग, पाच इन्द्रियाँ, मन, जीवका घात इत्यादि बाह्य सामग्री कर्मबन्धका कारण नहीं है। कर्मबन्धका कारण रागादि अशुद्धपना है । वस्तुका स्वरूप ऐसा ही है। तो भी [ ज्ञानिनां ] शुद्धस्वरूपके अनुभवशील है जो सम्यग्दृष्टि जीव उनकी [ निरर्गलं चरितुम् ] प्रमादी होकर विषयभोगका सेवन किया तो किया ही, जीवोंका घात हुआ तो हुआ ही, मन वचन काय जैसे प्रवर्ते वैसे प्रवर्तो ही ऐसी निरंकुश वृत्ति [ न इष्यते ] जानकर करते हुए कर्मका बन्ध नहीं है ऐसा तो गणधरदेव नहीं मानते हैं। किस कारणसे नहीं मानते हैं? कारण कि सा निरर्गला व्यापृतिः किल तदायतनम् एव '' [ सा ] पूर्वोक्त [ निरर्गला व्यापृतिः ] बुद्धिपूर्वक जानकर, अन्तरंगमें रुचिकर विषय-कषायोंमें निरंकुशरूपसे आचरण [ किल ] निश्चयसे [ तद्- आयतनम् एव ] अवश्य कर, मिथ्यात्व-राग-द्वेषरूप अशुद्ध भावोंको लिये हुए है, इससे कर्मबन्धका कारण है। भावार्थ इस प्रकार है कि ऐसी युक्तिका भाव मिथ्यादृष्टि जीवके होता है, सो मिथ्यादृष्टि कर्मबन्धका कर्ता प्रगट ही है। कारण कि 'ज्ञानिनां तत् अकामकृत् कर्म अकारणं मतम् ' ' [ ज्ञानिनां ] सम्यग्दृष्टि जीवोंके [ तत् ] जो कुछ पूर्वबद्ध कर्मके उदयसे है वह समस्त [ अकामकृत् कर्म ] अवांछित क्रियारूप है, इसलिए [ अकारणं मतम् ] कर्मबन्धका कारण नहीं है ऐसा गणधरदेवने माना है और ऐसा ही है। कोई कहेगा " करोति जानाति च ' [ करोति ] कर्मके उदयसे होती है जो भोगसामग्री सो होती हुई अन्तरंग रुचिपूर्वक सुहाती है ऐसा भी [ जानाति च ] तथा शुद्ध स्वरूपको अनुभवता है, " समस्त कर्मजनित सामग्रीको हेयरूप जानता है ऐसा भी है । Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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