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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १४६ समयसार-कलश [ भगवान् श्री कुन्द-कुन्दइससे ज्ञानावरणादि कर्मका बन्ध होता है। ऐसे बन्धको शुद्ध ज्ञानका अनुभव मेटनशील है, इसलिए शुद्ध ज्ञान उपादेय है।। १–१६३ ।। [पृथ्वी] न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा न नैंककरणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत्। यदैक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिभि: स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम्।।२-१६४।। [हरिगीत] कर्म की ये वर्गणाएं बंन्धका कारण नहीं । अत्यन्त चंचल योग भी हैं बन्ध का कारण नहीं।। करण कारण हैं नहीं चिद-अचिद हिंसा भी नहीं। बस बन्ध के कारण कहे अज्ञानमय रागादि ही।।१६४।। खंडान्वय सहित अर्थ:- प्रथम ही बन्धका स्वरूप कहते हैं : - "यत् उपयोगभू: रागादिभिः ऐक्यम् समुपयाति सः एव केवलं किल नृणाम् बन्धहेतु: भवति'' [यत्] जो [उपयोग] चेतनागुणरूप [भू:] मूल वस्तु [ रागादिभिः] राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणाम के साथ [ ऐक्यम् ] मिश्रितपनेरूपसे [ समुपयाति] परिणमती है [स: एव] एतावन्मात्र [ केवलं] अन्य सहाय बिना [किल] निश्चयसे [ नृणाम्] जितनी संसारी जीवराशि है उसके [बन्धहेतुः भवति] ज्ञानावरणादि कर्मबन्धका कारण होता है। यहां कोई प्रश्न करता है कि बन्धका कारण इतना ही है कि और भी कुछ बन्धका कारण है ? समाधान इस प्रकार है कि बन्धका कारण इतना ही है, और तो कुछ नहीं है; ऐसा कहते है - "कर्मबहुलं जगत् न बन्धकृत् वा चलनात्मकं कर्म न बन्धकृत वा अनेककरणानि न बन्धकृत् वा चिदचिद्वध: न बन्धकृत्'' [ कर्म] ज्ञानावरणादि कर्मरूप बाँधने को योग्य है जो कार्मणवर्गणा, उनसे [ बहुलं] घृतघटके समान भरा है ऐसा जो [ जगत्] तीनसो तेंतालीस राजुप्रमाण लोकाकाशप्रदेश [न बन्धकृत्] वह भी बन्धका कर्ता नहीं है। समाधान इस प्रकार है कि जो रागादि अशुद्ध परिणामोंके बिना कार्मणवर्गणामात्रसे बन्ध होता तो जो मुक्त जीव है उनके भी बन्ध होता। भावार्थ इस प्रकार है कि जो रागादि अशुद्ध परिणाम हैं तो ज्ञानावरणादि कर्मका बंध है, तो फिर कार्मण वर्गणाका सहारा कुछ नहीं है; जो रागादि अशुद्ध भाव नहीं हैं तो कर्मका बन्ध नहीं है, तो फिर कार्मणवर्गणाका सहारा कुछ नहीं है। [चलनात्मकं कर्म] मन-वचन-काययोग [न बन्धकृत् ] वह भी बन्धका कर्ता नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है कि जो मन-वचन-काययोग बन्धका कर्ता होता तो तेरहवें गुणस्थानमें मन-वचन-काययोग है सो उनके द्वारा भी कर्मका बन्ध होता, इस कारण जो रागादि अशुद्ध भाव हैं तो कर्मका बन्ध है, तो फिर मन-वचन-काययोगोंका सहारा कुछ नहीं है; रागादि अशुद्ध भाव नहीं है तो कर्मका बन्ध नहीं है, तो फिर मन-वचन-काययोगोंका सहारा कुछ नहीं है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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