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________________ Version 001: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates निर्जरा- अधिकार कहान जैन शास्त्रमाला ] [ अनुष्टुप ] तज्ज्ञानस्यैव सामर्थ्यं विरागस्यैव वा किल । यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुज्जानोऽपि न बध्यते ।। २-१३४।। [ दोहा ] ज्ञानी न बंधे कर्मसे सब कर्म करते भोगते । यह ज्ञान की सामर्थ्य अर वैराग्य का बल जानिये ।। १३४ ।। १९७ खंडान्वय सहित अर्थ:- '' तत् सामर्थ्यं किल ज्ञानस्य एव वा विरागस्य एव '' [ तत् सामर्थ्यं ] ऐसी सामर्थ्य [किल ] निश्चयसे [ ज्ञानस्य एव ] शुद्ध स्वरूपके अनुभवकी है, [ वा विरागस्य एव ] अथवा रागादि अशुद्धपना छूटा है, उसकी है। वह सामर्थ्य कौन ? " यत् कः अपि कर्म भुज्ञानः अपि कर्मभिः न बध्यते '' [ यत् ] जो सामर्थ्य ऐसी है कि [ क: अपि ] कोई सम्यग्दृष्टि जीव [ कर्म भूञ्जान: अपि ] पूर्व ही बाँधा है ज्ञानावरणादि कर्म उसके उदयसे हुई है शरीर, मन, वचन, इन्द्रिय, सुख, दुःखरूप नाना प्रकारकी सामग्री, उसको यद्यपि भोगता है तथापि [ कर्मभि: ] ज्ञानावरणादिसे [ न बध्यते ] नहीं बँधता है । जिस प्रकार कोई वैद्य प्रत्यक्षरूपसे विषको खाता है तो भी नहीं मरता है और गुण जानता है, इससे अनेक यत्न जानता है, उससे विषकी प्राणघातक शक्ति दूर करदी है। वही विष अन्य जीव खावे तो तत्काल मरे, उससे वैद्य नहीं मरता । ऐसी जानपनेकी सामर्थ्य है। अथवा कोई शूद्र मदिरा पीता है । परन्तु परिणामोंमें कुछ दुश्चिन्ता है, मदिरा पीनेमें रुचि नहीं है, ऐसा शूद्रजीव मतवाला नहीं होता। जैसा था वैसा ही रहता है। मद्य तो ऐसा है जो अन्य कोई पीता है तो तत्काल मतवाला होता है। सो जो कोई मतवाला नहीं होता ऐसा अरुचिपरिणामका गुण जानो। उसी प्रकार कोई सम्यग्दृष्टि जीव नाना प्रकारकी सामग्रीको भोगता है, सुख - दुःखको जानता है, परंतु ज्ञानमें शुद्धस्वरूप आत्माको अनुभवता है, उससे ऐसा अनुभवता है जो ऐसी सामग्री कर्मका स्वरूप है, जीवको दुःखमय है, जीवका स्वरूप नहीं, उपाधि है ऐसा जानता है। उस जीवको ज्ञानावरणादि कर्मका बंध नहीं होता है। सामग्री तो ऐसी है जो मिथ्यादृष्टि के भोगनेमात्र कर्मबंध होता है। जो जीवको कर्मबंध नहीं होता, वह जानपना की सामर्थ्य है ऐसा जानना । अथवा सम्यग्दृष्टि जीव नाना प्रकारके कर्मके उदयफल भोगता है, परंतु अभ्यन्तर शुद्धस्वरूपको अनुभवता है, इसलिए कर्मके उदयफलमें रति नहीं उपजती, उपाधि जानता है, दुःख जानता है, इसलिए अत्यन्त रूखा है। ऐसे जीवके कर्मका बंध नहीं होता है, वह रूखे परिणामोंकी सामर्थ्य है ऐसा जानो। इसलिए ऐसा अर्थ ठहराया जो सम्यग्दृष्टि जीवके शरीर, इन्द्रिय आदि विषयोंका भोग निर्जराके लेखे में है, निर्जरा होती है। क्योंकि आगामी कर्म तो नहीं बँधता है, पिछला उदयफल देकर मूलसे निर्जर जाता है, इसलिए सम्यग्दृष्टिका भोग निर्जरा है ।। २ – ९३४ ।। Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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