SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार-कलश [भगवान् श्री कुन्द-कुन्द [शालिनी] भावो रागद्वेषमोहैर्विना यो जीवस्य स्याद् ज्ञाननिवृत्त एव। रुन्धन् सर्वान् द्रव्यकर्मास्रवौघान् एषोऽभावः सर्वभावास्रवाणाम्।।२-११४ ।। [हरिगीत] इन द्रव्य कर्मों के पहाड़ों के निरोधक भाव जो। हैं राग-द्वेष-विमोह बिन सद्ज्ञान निर्मित भाव जो ।। भावानवों से रहित वे इस जीव के निज भाव हैं। वे ज्ञानमय शुद्धात्ममय निज आत्मा के भाव हैं।।११४ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "जीवस्य यः भावः ज्ञाननिवृत्तः एव स्यात्'' [ जीवस्य ] काललब्धि प्राप्त होनेसे प्रगट हुआ है सम्यक्त्वगुण जिसका ऐसा है जो कोई जीव, उसका [ यः भावः] जो कोई सम्यक्त्वपूर्वक शुद्धस्वरूप-अनुभवरूप परिणाम। ऐसा परिणाम कैसा होता है ? [ ज्ञाननिर्वृत्त: एव स्यात् ] शुद्ध ज्ञानचेतनामात्र है। उस कारणसे "एषः'' ऐसा है जो शुद्ध चेतनामात्र परिणाम, वह "सर्वभावानुवाणाम् अभावः'' [ सर्व] असंख्यात लोकमात्र जितने [भाव] अशुद्ध चेतनारूप राग, द्वेष, मोह आदि जीवके विभाव परिणाम होते हैं जो [ आस्रवाणाम् ] ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मके आगमनको निमित्तमात्र हैं उनके [अभाव:] मूलोन्मूल विनाश है। भावार्थ इस प्रकार है – जिस काल शुद्ध चैतन्यवस्तुकी प्राप्ति होती है उस काल मिथ्यात्व राग-द्वेषरूप जीवका विभाव परिणाम मिटता है, इसलिए एक ही काल है, समयका अन्तर नहीं है। कैसा है शुद्ध भाव ? "राग-द्वेषमोहै: विना'' रागादि परिणाम रहित है। शुद्ध चेतनामात्र भाव है। और कैसा है ? "द्रव्यकर्मास्रवौघान् सर्वान् रुन्धन'' [ द्रव्यकर्म] ज्ञानावरणादि कर्मपर्यायरूप परिणमा है पुद्गलपिण्ड, उसका [आस्रव] होता है धाराप्रवाहरूप समय-समय आत्मप्रदेशोंके साथ एकक्षेत्रावगाह, उसका [ओघान्] समूह। भावार्थ इस प्रकार है - ज्ञानावरणादिरूप कर्मवर्गणा परिणमती है, उसके भेद असंख्यात लोकमात्र हैं। उसके [ सर्वान् ] जितने धारारूप आते हैं कर्म उन सबको [रुन्धन् ] रोकता हुआ। भावार्थ इस प्रकार है - जो कोई ऐसा मानेगा कि जीवका शुद्ध भाव होता हुआ रागादि अशुद्ध परिणामका नाश करता है, आस्रव जैसा ही होता है वैसा ही होता है सो ऐसा तो नहीं, जैसा कहते है वैसा है -जीवके शुद्ध भावरूप परिणमनेपर अवश्य ही अशुद्ध भाव मिटता है। अशुद्ध भावके मिटनेपर अवश्य ही द्रव्यकर्मरूप आस्रव मिटता है, इसलिए शुद्ध भाव उपादेय है, अन्य समस्त विकल्प हेय है।। २–११४ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy