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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] पुण्य-पाप-अधिकार भावार्थ इस प्रकार है – कोई जानेगा कि स्वरूपाचरणचारित्र ऐसा कहा जाता है जो आत्माके शुद्ध स्वरूपको विचारे अथवा चिन्तवे अथवा एकाग्ररूपसे मग्न होकर अनुभवे। सो ऐसा तो नहीं, उसके करनेपर बंध होता है, क्योंकि ऐसा तो स्वरूपाचरणचारित्र नहीं है। तो स्वरूपाचरणचारित्र कैसा है ? जिस प्रकार पन्ना [ सुवर्ण पत्र] पकानेसे सुवर्णमेंकी कालिमा जाती है, सुवर्ण शुद्ध होता है, उसी प्रकार जीवद्रव्य के अनादिसे अशुद्ध चेतनारूप रागादि परिणमन था, वह जाता है, शुद्धस्वरूप मात्र शुद्धचेतनारूप जीवद्रव्य परिणमता है, उसका नाम स्वरूपाचरणचारित्र कहा जाता है, ऐसा मोक्षमार्ग है। कुछ विशेष- वह शुद्ध परिणमन जहाँ तक सर्वोत्कृष्ट होता है वहाँ तक शुद्धपनाके अनन्त भेद हैं। वे भेद जातिभेदकी अपेक्षा तो नहीं। बहुत शुद्धता, उससे बहुत, उससे बहुत ऐसा थोड़ाबहुतरूप भेद है। भावार्थ इस प्रकार है जितनी शुद्धता होती है उतनी ही मोक्षका कारण है। जब सर्वथा शुद्धता होती है तब सकल कर्मक्षयलक्षण मोक्षपदकी प्राप्ति होती है। किस कारण ? ''सदा ज्ञानस्य भवने एकद्रव्यस्वभावत्वात'' [ सदा] तीनों कालों में ही | ज्ञानस्य ? तनापरिणमनरूप स्वरूपाचरणचारित्र वह आत्मद्रव्यका निज स्वरूप है, शुभाशुभ क्रियाके समान उपाधिरूप हीं है, इस कारण | एकद्रव्यस्वभावत्वात् ] एक जीवद्रव्य स्वरूप है। भावार्थ इस प्रकार है - कि जो गुण-गुणीरूप भेद करते हैं तो ऐसा भेद होता है कि जीवका शुद्धपना गुण। जो वस्तुमात्र अनुभव करते हैं तो ऐसा भेद भी मिटता है, क्योंकि शुद्धपना तथा जीवद्रव्य वस्तु तो एक सत्ता है, ऐसा शुद्धपना मोक्षकारण है। इसके बिना जो कुछ करतूतिरूप है वह समस्त बंधका कारण है।। ७-१०६ ।। है जो [अनुष्टुप] वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि। द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत्।।८-१०७।। [दोहा] कर्मभाव का परिणमन ज्ञानरूप ना होय । द्रव्यान्तर स्वभाव यह इससे मुक्ति न होय।।१०७।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "कर्मस्वभावेन वृत्तं ज्ञानस्य भवनं न हि'' [ कर्मस्वभावेन ] जितना शुभ क्रियारूप अथवा अशुभ क्रियारूप आचरणलक्षण चारित्र उसके स्वभावसे अर्थात् उसरूप जो [ वृत्तं] चारित्र वह [ ज्ञानस्य] शुद्ध चैतन्यवस्तुका [भवनं ] शुद्ध स्वरूप परिणमन [न हि] नहीं होता ऐसा निश्चय है। भावार्थ इस प्रकार है - जितना शुभ-अशुभ क्रियारूप आचरण अथवा बाह्यरूप वक्तव्य अथवा सूक्ष्म अंतरंगरूप चिंतवन, अभिलाष, स्मरण इत्यादि समस्त अशुद्धत्वरूप परिणमन हैं, शुद्ध परिणमन नहीं, इसलिए बंधका कारण है, मोक्षका कारण नहीं है। इस कारण जिस प्रकार कामलाका नाहर [ सिंह ] ' कहनेके लिए नाहर है उसी प्रकार आचरणरूप [क्रियारूप] चारित्र । कहनेके लिए चारित्र' है, परंतु चारित्र नहीं है। निःसंदेहरूपसे ऐसा जानो।"तत् कर्म मोक्षहेतुः न' [ तत्] इस कारण [कर्म] बाह्य-अभ्यंतररूप सूक्ष्म-स्थूलरूप जितना आचरणरूप [ चारित्र] है वह [ मोक्षहेतुः न ] कर्मक्षयका कारण नहीं, बंधका कारण है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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