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________________ १०८ योगसार-प्राभृत मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। ज्ञानी जीव प्राप्त सुख-दुःख के मात्र ज्ञाता रहते हैं, वे उसे भोगते नहीं। देवेन्द्रों का विषय-सुख भी दुःख ही है - यत्सुखं सुरराजानां जायते विषयोद्भवम् । ददानं दाहिकां तृष्णां दुःखं तदवबुध्यताम् ।।१४३।। अन्वय :- सुरराजानां विषय-उद्भवं यत् सुखं जायते तत् दाहिकां तृष्णां ददानं दुःखं (एव अस्ति इति) अवबुध्यताम् । सरलार्थ :- (यदि यह पूछा जाय कि देवगति को प्राप्त देवेन्द्रों को तो बहुत सुख होता है फिर देवगति के सभी जीवों को दुःख सहनेवाला क्यों लिखा है? तो इसका समाधान यह है कि) देवेन्द्रों को इन्द्रिय-विषयों से उत्पन्न जो सुख होता है वह दाह उत्पन्न करनेवाली तृष्णा को देनेवाला है; इसलिए उसे (वस्तुतः) दुःख ही समझना चाहिए।' भावार्थ :- पिछले श्लोक में जिन चतुर्गति-सम्बन्धी शारीरिक तथा मानसिक दुःखों को सहन करने का उल्लेख है, उस पर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि पुण्यकर्म से जो देवगति की प्राप्ति होती है, उसमें देवेन्द्र का सुख तो बहुत बढ़ा-चढ़ा होता है; तब स्वर्गगति प्राप्त जीवों के भी दुःख सहने की बात कैसे कहते हो? इसी का उत्तर इस पद्य में देते हुए लिखा है कि – 'देवराज को स्वर्ग में जो इंद्रिय-विषयों से उत्पन्न हुआ सुख प्राप्त होता है, वह दाह उत्पन्न करनेवाली भारी तृष्णा को देनेवाला होता है और इसीलिए उसे भी दुःख समझना चाहिए। जिसप्रकार प्यास के रोगी को जितना पानी पिलायेंगे, उतनी प्यास ही बढ़ती है, तृप्ति नहीं होती; उसीप्रकार स्वर्ग के जीवों को भी हजारोंकरोड़ों-सागरों वर्षों तक भी जिस सुख को भोगने से तृप्ति ही न हो, उल्टी तृष्णा बढ़े, उसे सुख कैसे कह सकते हैं ? सुख तो तृष्णा के अभाव में होता है। इंद्रिय-जनित सुख, दुःख ही है - अनित्यं पीडकंतष्णा-वर्धकं कर्मकारणम। शर्माक्षजं पराधीनमशर्मैव विदुर्जिनाः ।।१४४।। अन्वय :- अनित्यं, पीडकं, तृष्णा-वर्धकं, कर्मकारणं पराधीनं अक्षजं शर्म जिना: अशर्म एव विदुः। सरलार्थ :- जो अनित्य हैं, पीडाकारक है, तृष्णावर्धक है, कर्मबंध का कारण है, पराधीन है, उस इंद्रियजन्य सुख को जिनराजों ने असुख अर्थात् दुःख ही कहा है। ___भावार्थ :- पिछले श्लोक में जिस इन्द्रियसुख का उल्लेख है उसके कुछ विशेषणों को इस श्लोक में और स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि वह एक तो क्षणभंगुर है अर्थात् नित्य रहनेवाला नहीं। पीड़ाकारक है, अर्थात् दुःख को साथ में लिये हुए हैं। मात्र तृष्णा को उत्पन्न ही नहीं करता, किन्तु उसे बढ़ानेवाला है। कर्मों के आस्रव-बन्ध का कारण है और साथ ही स्वाधीन न होकर पराधीन है। इसी से जिनेन्द्र भगवान उसे वस्तुतः दुःख ही कहते हैं । [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/108]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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