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________________ आस्रव अधिकार १०७ लेकिन वह अनंत संसार का कारण नहीं होता। ज्ञानी जीव पुण्य-पाप परिणाम के समय भी अनन्तानुबंधी आदि कषायों के अभाव से शुद्धपरिणति रूप सतत रहने से स्वचारित्र से विमुख नहीं होता। मिथ्याचारित्र का स्वरूप और स्पष्ट करते हैं - यत: संपद्यते पुण्यं पापं वा परिणामतः। वर्तमानो ततस्तत्र भ्रष्टोऽस्ति स्वचरित्रतः ।।१४१।। अन्वय :- यतः (शुभ-अशुभ) परिणामत: पुण्यं वा पापं संपद्यते । ततः तत्र वर्तमानः स्वचारित्रतः भ्रष्टः अस्ति। ___ सरलार्थ :- क्योंकि शुभ और अशुभ परिणाम से पुण्य तथा पाप कर्म की उत्पत्ति होती है, इसलिए इन परिणामों में (उपादेय बुद्धि से) प्रवर्तमान आत्मा अपने चारित्र से भ्रष्ट होता है। भावार्थ :- मात्र पुण्य-पाप परिणामों से पुण्य-पापरूप कर्म की उत्पत्ति होना और पुण्य-पाप में प्रवर्तमान होने से ही स्वचारित्र से भ्रष्ट होना माना जाय तो साक्षात् अरहंत भगवान होने के लिये क्षपक श्रेणी के दसवें गुणस्थान में विराजमान महापुरुषार्थी भावलिंगी मुनिराज को भी स्वचारित्र से भ्रष्ट मानना अनिवार्य हो जायगा; क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती मुनिराज के परिणाम भी मिश्रभावरूप रहते हैं। (दसवें गुणस्थान में मुनिराज को वीतरागता के साथ सूक्ष्म लोभकषाय के उदय से अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्मलोभरूप राग-परिणाम होता है) इसलिए इस श्लोक के सरलार्थ करते समय बॅकेट में दिये हुए उपादेय बुद्धि से' – इन शब्दों को बारीकी से समझना आवश्यक है। जो कोई जीव पुण्य-पाप परिणामों में उपादेयबुद्धि रखता है, वही स्वचारित्र से भ्रष्ट है, ऐसा समझने से ही अर्थ यथार्थ होता है। __अविरत सम्यक्दृष्टि से लेकर सर्व साधक/मोक्षमार्गी जीव अपने-अपने गुणस्थानानुसार स्वरूपाचरण में प्रवर्तमान हैं, ऐसा ही स्वीकारना चारों अनुयोगों के अनुसार उचित है। यहाँ मिथ्यादृष्टि जीव ही स्वचारित्र से भ्रष्ट है, यह समझाने का ग्रंथकार का अभिप्राय है। मिथ्याचारित्र का फल - श्वाभ्र-तिर्यङ्-नर-स्वर्गिगतिं जाताः शरीरिणः। शारीरं मानसं दुःखं सहन्ते कर्म-संभवम् ।।१४२।। अन्वय :- (स्व -चारित्रभ्रष्टाः) श्वाभ्र-तिर्यङ्-नर-स्वर्गि-गतिं जाताः शरीरिणः (जीवाः) कर्म-संभवं शारीरं मानसं दुःखं सहन्ते।। सरलार्थ :- शुभाशुभ भावों में उपादेयबुद्धि रखने के कारण अपने चारित्र से भ्रष्ट होकर पुण्यपाप कर्म के संचय करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति को प्राप्त करते हुए कर्मजन्य शारीरिक तथा मानसिक दुःख को सहन करते हैं। भावार्थ :- चारों गतियों में शारीरिक एवं मानसिक दुःख को सहन करनेवाले जीव नियम से [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/107]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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