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________________ ८८ योगसार-प्राभृत है। क्षायिकभाव स्वभाव की व्यक्तिरूप होने से अविनाशी होते हुए भी सादि है; क्योंकि कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है और इसी से उसे भी कर्मकृत कहा जाता है। नियमसार गाथा-४१ की टीका का उपसंहार करते हुए टीकाकार मुनि पद्मप्रभमलधारी देव लिखते हैं कि – “पूर्वोक्त चार भाव आवरण संयुक्त होने से मुक्ति का कारण नहीं है। त्रिकालनिरुपाधि जिसका स्वरूप है ऐसे निरंजन निज परम पंचम भाव (पारिणामिक भाव) की भावना से मुमुक्षु पंचमगति में (वर्तमान काल में) जाते हैं, (भविष्यकाल में) जायेंगे और (भूतकाल में) जाते थे। अजीव तत्त्व जानने की अनिवार्यता - (उपजाति) अजीवतत्त्वं न विदन्ति सम्यक् ये जीवतत्त्वाद्विधिना विभक्तम् । चारित्रवन्तोऽपि न ते लभन्ते विविक्तमात्मानमपास्तदोषम् ।।१०९।। अन्वय :- ये अजीवतत्त्वं जीवतत्त्वात् विधिना विभक्तं सम्यक् न विदन्ति ते चारित्रवन्तः अपि अपास्त-दोषं विविक्तं आत्मानं न लभन्ते । सरलार्थ :- जो लोग जीवतत्त्व से भिन्नरूप अजीवतत्त्व को शास्त्रोक्त रीति से/यथार्थरूप से नहीं जानते, वे जिनेंद्र-कथित व्यवहारचारित्र के पालन से चारित्रवन्त होते हुए भी विविक्त अर्थात् अनादि से पवित्र और सर्वथा निर्दोष निज जीवतत्त्व को प्राप्त नहीं होते। भावार्थ :- इस पद्य में अजीवाधिकार का उपसंहार करते हुए अजीव-तत्त्व के यथार्थ परिज्ञान का महत्त्व ख्यापित किया गया है। जबतक इस अजीवतत्त्व का यथार्थ परिज्ञान नहीं होता है, तबतक आत्मा को अपने शुद्धरूप की उपलब्धि नहीं होती, चाहे वह कितना भी तपश्चरण क्यों न करें। यहाँ अजीव-तत्त्व का जीवतत्त्वाद्विधिना विभक्तं यह विशेषण अपना खास महत्त्व रखता है और इस बात को सूचित करता है कि अजीव-तत्त्व, जीव-तत्त्व के मात्र अभावरूप नहीं है, किन्तु अपने अस्तित्व को लिये हुए एक पृथक् तत्त्व है और वह मुख्यतः वह तत्त्व है जो जीव के साथ एकक्षेत्र-अवगाहरूप होते हए भी उससे सदा पृथक रहता है और जीव के विभाव-परिणमन में निमित्तकारण पड़ता है। वह पुद्गलद्रव्य है जो कर्म के रूप में जीव के साथ अनादि-सम्बन्ध को लिये हुए हैं और वर्तमान में शरीर के रूप में अनेक स्वजनादि के सम्बन्ध को लिये हए हैं। उसको ठीक न समझने से इसप्रकार श्लोक क्रमांक ६० से १०९ पर्यन्त ५० श्लोकों में यह दूसरा ‘अजीव-अधिकार' पूर्ण हुआ। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/88]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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