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________________ अजीव अधिकार स्वतंत्र हैं और भविष्य में स्वतंत्र ही रहेंगे, यह जिनधर्म का मूल प्राण है। जो इस विषय को स्पष्ट और निर्णयात्मक नहीं जानता, वह सर्वज्ञ भगवान का भी श्रद्धालु नहीं है, ऐसा समझना चाहिए। आत्मा को द्रव्यकर्म का कर्ता मानने पर दोषापत्ति - आत्मना करुते कर्म यद्यात्मा निश्चितं तदा। कथं तस्य फलं भुङ्क्ते स दत्ते कर्म वा कथम् ।।१०७।। अन्वय :- यदि निश्चितं आत्मा आत्मना कर्म कुरुते तदा सः तस्य (कर्मण:) फलं कथं भुङ्क्ते वा कर्म कथं (फलं) दत्ते ? ___ सरलार्थ :- यदि यह निश्चितरूप से माना जाय कि आत्मा आत्मा के द्वारा अर्थात् अपने ही उपादान से कर्म को करता है तो फिर वह उस कर्म के फल को कैसे भोगता है? और वह कर्म आत्मा को फल कैसे देता है? भावार्थ :- पंचास्तिकाय संग्रह गाथा ६३ में उक्त विषय को बताया है। यदि पूर्व श्लोक वर्णित सिद्धान्त के विरुद्ध निश्चित रूप से यह माना जाय कि आत्मा अपने उपादान से द्रव्यकर्म का कर्ता है अर्थात् स्वयं ही ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मरूप परिणत होता है तो फिर यह प्रश्न पैदा होता है कि वह आत्मा उस कर्मफल को कैसे भोगता है और वह कर्म उस आत्मा को फल कैसे देता है? दोनों के एक ही होने पर फलदान और फलभोग की बात नहीं बन सकती। कर्म-निमित्तक औदयिकादि सब भाव अचेतन - (रथोद्धता) कर्मणामुदयसंभवा गुणाः शामिका: क्षयशमोद्भवाश्च ये। चित्रशास्त्रनिवहेन वर्णितास्ते भवन्ति निखिला विचेतनाः ।।१०८।। अन्वय :- ये गुणाः (भावाः) कर्मणां-उदय-संभवाः, शामिकाः, च क्षयशम:-उद्भवाः (सन्ति) ते अखिला: चित्र-शास्त्र-निवहेन विचेतना: वर्णिताः भवन्ति। सरलार्थ :- जो गुण अर्थात् भाव, कर्मों के उदय से उत्पन्न होने के कारण औदयिक हैं, कर्मों के उपशमजन्य होने से औपशमिक हैं तथा कर्मों के क्षयोपशम से प्रादुर्भूत होने के कारण क्षायोपशमिक हैं, वे सब भाव विविध शास्त्र-समूह द्वारा चेतना विरहित/अचेतन वर्णित हैं । अर्थात् अनेक शास्त्रों में उन्हें अचेतन कहा है। भावार्थ :- कर्मों के उदय से औदयिक, उपशम से औपशमिक, क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले भावों को क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । ये सब भाव कर्म सापेक्ष होने से जीव के स्वभावरूप नहीं हैं; अतः इन्हें अचेतन बताया गया है। एक मात्र अनादि-अनंत पारिणामिक भाव को जीव का कहने की यहाँ विवक्षा है; क्योंकि वही एक भाव ध्यान का ध्येय है, अध्यात्म का प्राणभूत विषय है। द्रव्यकर्म के उदयादि-निमित्त को पाकर उत्पन्न होनेवाले ये आत्मा के विभाव भाव हैं - स्वभाव-भाव तो एक मात्र पारिणामिक भाव है, जो अनादि-निधन स्वत:सिद्ध तथा निरुपाधि होता [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/87]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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