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________________ ८४ योगसार-प्राभृत चेतन देह से भिन्न है; परंतु अपने ज्ञान-लक्षण से कभी भी भिन्न नहीं होता। भावार्थ :- जिसप्रकार स्कन्धरूप पुद्गल के रस में रूप प्रतीयमान (प्रतिभासमान) होते हुए भी वहाँ कभी स्पष्ट प्रतीत (प्रतिभासित) नहीं होता और इसलिए रस से रूप भिन्न है – रस, रसना इन्द्रिय का विषय है और रूप, चक्षु इन्द्रिय का विषय है। उसीप्रकार शरीर में जीवात्मा के प्रतीयमान होने पर भी जीवात्मा वहाँ कभी स्पष्ट रूपसे प्रतीत नहीं होता और इसीलिए पौद्गलिक शरीर से जीवात्मा सर्वथा भिन्न है - शरीर इन्द्रिय गोचर पौद्गलिक है जबकि जीवात्मा अपौद्गलिक और स्वसंवेद्य भी है, इन्द्रियगोचर नहीं। शरीर से भिन्न होते हुए भी जीवात्मा अपने ज्ञानलक्षण से, जो कि उसका आत्मभूत-लक्षण है, कभी भिन्न नहीं होता। ____ मुमुक्षु जीवों को भेदविज्ञान के लिये जिनवाणी में कथित प्रत्येक द्रव्य का लक्षण ही उपयोगी होता है। अतः साधक को जिनवाणी में वर्णित द्रव्यों के लक्षणों का ज्ञान करना आवश्यक है। इस श्लोक में जीव का लक्षण चेतना बताया है, जो शरीरादि से अपने को भिन्न जानने के लिये उपयोगी है। प्रत्येक द्रव्य के लक्षण को भी आगमानुसार जानना चाहिए। इंद्रिय गोचर सब पुद्गल हैं - दृश्यते ज्ञायते किंचिद् यदक्षैरनुभूयते। तत्सर्वमात्मनो बाह्यं विनश्वरमचेतनम् ।।१०३।। अन्वय :- अक्षैः यत् किंचित् दृश्यते ज्ञायते अनुभूयते तत् सर्वं आत्मनः बाह्य विनश्वरं अचेतनं (भवति)। सरलार्थ :- इन्द्रियों से जो कुछ भी देखा जाता है, जाना जाता है और अनुभव किया जाता है; वह सर्व आत्मा से बाह्य, नाशवान तथा अचेतन है। भावार्थ :- इस श्लोक में इन्द्रियों द्वारा दृष्ट, ज्ञात तथा अनुभूत पदार्थो के विषय में एक अटल नियम का निर्देश किया गया है, कि ऐसे सब पदार्थ एक तो आत्मबाह्य होते हैं - शुद्ध आत्मा के किसी भी गुण या पर्यायरूप नहीं होते, दूसरे विनश्वर/सदा स्थिर न रहनेवाले होते हैं, तीसरे अचेतन होते हैं । इन्द्रियों का जो कुछ भी विषय है वह सब पौद्गलिक अर्थात् अनन्तानन्त पुद्गलनिष्पन्न हैं। पुद्गल आत्मा से बाह्य वस्तु है, अचेतन है और पूरण-गलन-स्वभाव के कारण सदा एक अवस्था में स्थिर रहनेवाला नहीं है। परमाणु-रूप में पुद्गल इन्द्रियों का विषय ही नहीं और स्कन्धरूप में पुद्गल सदा मिलते और बिछड़ते रहते हैं। अतः उक्त नियम एक मात्र पौद्गलिकद्रव्यों से सम्बन्ध रखता है - दूसरे कोई भी द्रव्य इन्द्रियों के विषय नहीं हैं। रूप का पौद्गलिक स्वरूप - [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/84]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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