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________________ अजीव अधिकार ६३ ही बुद्धिगम्य दृष्टान्त से संक्षेप में ही कथन किया है। द्रव्यसंग्रह गाथा २२ में एवं गोम्मटसार गाथा ५८८ में यही भाव स्पष्टरूप से दिया है। धर्म, अधर्म और पुद्गलद्रव्य की व्यापकता - धर्माधर्मों स्थितौ व्याप्य लोकाकाशमशेषकम् । व्योमैकांशादिषु ज्ञेया पुद्गलानामवस्थितिः ।।७२।। अन्वय :- धर्माधर्मों अशेषकं लोकाकाशं व्याप्य स्थितौ (स्त:)। पुद्गलानां अवस्थिति: व्योम-एक-अंशादिषु ज्ञेया। सरलार्थ :- धर्म, अधर्म-दोनों द्रव्य संपूर्ण लोकाकाश में व्यापकर तिष्ठते हैं। पुद्गलों का अवस्थान/व्यापकता आकाश द्रव्य के एक आदि अंश अर्थात् एक प्रदेश से लेकर दो, तीन, चार आदि प्रदेश बढ़ाते हुए संपूर्ण लोकाकाश में जानना चाहिए। भावार्थ :- धर्म और अधर्म ये दो द्रव्य तो सारे लोकाकाश में व्याप्त होकर स्थित हैं। लोकाकाश का कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं, जो इनसे व्याप्त न हो। इनमें से प्रत्येक की प्रदेशसंख्या असंख्यात होने से लोकाकाश भी असंख्यातप्रदेशी है; यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है। पुद्गलों की अवस्थिति लोक के एक प्रदेश से लेकर संख्यात असंख्यात प्रदेशों पर्यंत है । तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५, सूत्र १२, १३, १४ में यही भाव आया है। संसारी जीवों की लोकाकाश में व्यापकता - लोकासंख्येयभागादाववस्थानं शरीरिणाम् । अंशा विसर्प-संहारौ दीपानामिव कुर्वते ।।७३।। अन्वय :- शरीरिणां अवस्थानं लोक-असंख्येयभागादौ (भवति)। (संसारी जीवानां) अंशाः दीपानां इव विसर्प-संहारौ कुर्वते।। सरलार्थ :- शरीरधारी संसारीजीव की व्यापकता लोकाकाश के असंख्येय भागादिकों में अर्थात् लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में होती है । संसारी जीवों के प्रदेश शरीर के आकारानुसार दीपकों के प्रकाश के समान संकोच-विस्तार करते रहते हैं। भावार्थ :- लोकाकाश का असंख्यातवाँ भाग असंख्यात प्रदेशी है और पूर्ण लोकाकाश के प्रदेश भी असंख्यात हैं; यह विषय समझना यहाँ महत्त्वपूर्ण है। पहले संख्यात और असंख्यात की परिभाषा जानना आवश्यक है। जो संख्या पाँचों इन्द्रियों का अर्थात् मति-श्रुतज्ञान का विषय हो, उसे संख्यात कहते हैं। उसके अनेक अर्थात् संख्यात भेद हैं। जैसे-२ यह जघन्य संख्या है। १००, २००, १०००, ५०००, ५ लाख, ५ करोड, अरब, खरब, नील, महानील आदि संख्या के संख्यात भेद हैं। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/63]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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