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________________ ६२ योगसार-प्राभृत दूसरा कारण - एक पुद्गल परमाणु में भी अन्य संख्यात, असंख्यात एवं अनंतानंत परमाणुओं को स्थान देने की शक्ति है। ___ यदि आकाश के एक प्रदेश में एक ही परमाणु को स्थान देने की सामर्थ्य होती और पुद्गल परमाणु भी अन्य पुद्गलों को अपने में स्थान देने में असमर्थ होता तो असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में असंख्यातप्रदेशी पुद्गल द्रव्य ही रह सकते थे। प्रश्न - लोकाकाश में असंख्यातप्रदेशी पुद्गल ही हैं; ऐसा मानने में क्या आपत्ति है ? उत्तर - प्रत्यक्ष में ही विरोध का प्रसंग आता है। प्रश्न - कैसे? उत्तर – पुस्तक, पेन, टेबल, कुर्सी, कागज ये पुद्गल स्कन्ध अनंत-अनंत परमाणुओं के पिण्ड हैं, यह स्पष्ट समझ में आ रहा है। अतः प्रत्यक्ष ज्ञात वस्तु-स्वरूप के विरोध का प्रसंग आयेगा। इसलिए असंख्यात-प्रदेशी लोकाकाश में अनंतानन्तप्रदेशी पुद्गल का अवगाह मानना शास्त्र सम्मत, युक्ति एवं सांव्यवहारिक ज्ञान प्रमाण से प्रमाणित है। तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५ सूत्र ९ एवं ११ में यही भाव स्पष्ट होता है। कालद्रव्य की संख्या एवं उसकी व्यापकता - असंख्या भुवनाकाशे कालस्य परमाणवः। एकैका व्यतिरिक्तास्ते रत्नानामिव राशयः ।।७१।। अन्वय :- भुवनाकाशे कालस्य असंख्याः परमाणवः (सन्ति) ते रत्नानां राशयः इव एकैकाः व्यतिरिक्ताः (भवन्ति)। सरलार्थ :- लोकाकाश में कालद्रव्य के असंख्यात परमाणु (कालाणु) स्थित हैं। वे कालाणु रत्नराशि समान एक-एक एवं भिन्न-भिन्न अर्थात लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालाण स्थित हैं। भावार्थ :- आचार्य ने कालाणु को अर्थात् कालद्रव्य को परमाणु कहा है; क्योंकि पुद्गल का परमाणु और कालद्रव्य - इन दोनों का आकार (आकाशप्रदेश) समान है, यही एक कारण है, अन्य कुछ नहीं। प्रश्न - ग्रंथों में कालद्रव्य को समझाने के लिये रत्नों की राशि के समान यह एक ही एक दृष्टान्त ग्रन्थकार क्यों देते हैं? अन्य दृष्टान्त के साथ विस्तारपूर्वक क्यों नहीं समझाते? उत्तर – जिनवाणी में कालादि अजीव का कथन जीव द्रव्यों को समझाने के प्रयोजन से ही किया जाता है। ज्ञानानंद के पिपासु विरक्त साधुओं को मात्र निज भगवान आत्मा के स्वरूप के उपदेश में एवं यथार्थ वस्तु-व्यवस्था के कथन में ही आनंद आता है। प्रसंगप्राप्त अजीवद्रव्यों का मात्र अत्यावश्यक कथन करते हैं। जिनवाणी के कथन का मुख्य केन्द्र बिन्दु तो मात्र एक जीवतत्त्व अर्थात् भगवान आत्मा ही है; इसलिए कालद्रव्य को समझाने के लिये नये-नये दृष्टान्त न देकर एक [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/62]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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