SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० योगसार-प्राभृत को अपेक्षा सहित/वस्त्र-प्रावरण की अपेक्षा रखनेवाला कैसे कहा गया? भावार्थ :- यह श्लोक प्रश्नात्मक है। प्रश्न स्पष्ट है। अगले अनेक श्लोकों में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है। इसलिए जिनदेव ने उन्हें उनके योग्य लिंग अर्थात वस्त्रादि सहित लिंग का ही उपदेश दिया है। प्रवचनसार (जयसेनाचार्य की टीका में) गाथा - २४४ में यही भाव बताया गया है। गाथा का अर्थ निम्नप्रकार है – मुनिराजों के इंद्र - जिनेंद्र भगवान द्वारा कहा गया धर्म, इस लोक और परलोक की अपेक्षा नहीं करता है, तब इस धर्म में स्त्रियों के लिंग को भिन्न क्यों कहा गया है? स्त्रीरूप पर्याय से मुक्ति न होने का प्रथम कारण - नामुना जन्मना स्त्रीणां सिद्धिर्निश्चयतो यतः। अनुरूपं ततस्तासां लिङ्ग लिङ्गविदो विदुः ।।४००।। अन्वय :- यतः स्त्रीणां अमुना जन्मना सिद्धिः निश्चयत: न (भवति)। तत: लिङ्गविदः तासां अनुरूपं लिङ्गं विदुः। सरलार्थ :- क्योंकि स्त्रियों के अपने इस जन्म से अर्थात् स्त्री-पर्याय से सिद्धि/मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती; इसलिए लिंग के जानकार जिनेन्द्र देवों ने उनके अनुरूप लिंग का उपदेश दिया है। भावार्थ :- ग्रंथकार सबसे प्रथम सर्वज्ञ भगवान की आज्ञा बता रहे हैं कि - स्त्री-पर्याय से मुक्ति नहीं होती। प्रवचनसार (जयसेनाचार्य कृत टीका) में समागत गाथा २४५ का और इस श्लोक का एक ही अर्थ है । इस गाथा की टीका को जिज्ञासु जरूर देखें। स्त्रियों की प्रमाद-बहुलता-दूसरा कारण प्रमाद-मय-मूर्तीनां प्रमादोऽतो यतः सदा। प्रमदास्तास्ततः प्रोक्ताः प्रमाद-बहुलत्वतः ।।४०१।। अन्वय :- यतः प्रमाद-मय-मूर्तीनां (स्त्रीणां) सदा प्रमादः (वर्तते), ततः प्रमादबहुलत्वतः ताः प्रमदाः प्रोक्ताः। सरलार्थ :- क्योंकि प्रमादमय/प्रमादमूर्तिरूप स्त्रियों के सदा प्रमाद बना रहता है; अतः प्रमाद की बहुलता के कारण स्त्रियों को प्रमदा कहा गया है; इसलिए उन्हें मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। भावार्थ :- नारी में अवस्थागत स्वाभाविकरूप से प्रमाद अधिक होता है; अतः उन्हें स्त्री अवस्था से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती, इसप्रकार मुक्ति न होने का कारण बताया है। प्रवचनसार गाथा २४६ (आचार्य जयसेन) के अनुसार ही इस श्लोक का अर्थ है। अतः इस गाथा की टीका को जरूर देखें। स्त्रियों के मोहादि की बहुलता तीसरा कारण - विषादः प्रमदो मूर्छा जुगुप्सा मत्सरो भयम् । चित्ते चित्रायते माया ततस्तासांन निर्वृतिः ।।४०२।। अन्वय :- (तासां स्त्रीणां) चित्ते विषादः प्रमदः मूर्छा जुगुप्सा मत्सरः भयं तथा माया [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/250]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy