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________________ चारित्र अधिकार २४९ प्रार्थित हो अर्थात जिन्हें असंयमी लोग निरंतर चाहते हैं। भावार्थ :- संयममय जीवन साधु का सर्वस्व होता है; इसलिए वे अहिंसादि महाव्रतों का पालन करते हैं । अट्ठाईस मूलगुणों का पालन भी संयम के लिये ही है । संयम में भी अहिंसा-महाव्रत मुख्य है। अतः संयम में हानिकारक उपधि का स्वीकार साधु नहीं करते। ममत्व परिणाम से समताभाव अर्थात् वीतराग परिणामरूप निश्चयधर्म का नाश होता है। यदि निश्चयधर्म का नाश हो जाय तो साधु-जीवन रहता ही नहीं। इसकारण वीतरागता में बाधक वस्तुओं से साधु कोसों दूर रहते हैं। ___ असंयमी लोगों को जो पदार्थ इष्ट हैं, वे यदि मुनिराज अपने पास में रखेंगे तो जिनका समागम नहीं चाहते – ऐसे लौकिकजनों का संपर्क बना रहेगा, जो मुनिधर्म का शत्रु है। अतः असंयमियों को प्रिय ऐसे विषय-कषाय के लिये अनुकूल वस्तुओं का साधु-अवस्था में अभाव ही रहता है। प्रवचनसार गाथा २२३ का संपूर्ण भाव ग्रंथकार ने इस श्लोक में दिया है। अतः इस गाथा की दोनों टीकाओं को जरूर देखें। मोक्षाभिलाषी साधु का स्वरूप - मोक्षाभिलाषिणां येषामस्ति कायेऽपि निस्पृहा। न वस्त्वकिंचनाः किंचित् ते गृह्णन्ति कदाचन ।।३९८।। अन्वय :- येषां मोक्षाभिलाषिणां काये अपि निस्पृहा अस्ति ते अकिंचनाः (साधवः) कदाचन किंचित् वस्तु न गृह्णन्ति। सरलार्थ :- मात्र मोक्ष की अभिलाषा रखनेवाले साधुजन अपने शरीर से भी विरक्त रहते हैं; इसकारण अपरिग्रहमहाव्रत के धारक मुनिराज अत्यल्प भी बाह्य परिग्रह को कदाचित् भी ग्रहण नहीं करते। भावार्थ:- यह स्वरूप उत्सर्गमार्गी मुनिराजों का है। ये महामानव उपात्त परिग्रह शरीर के प्रति भी उपेक्षाभाव रखते हैं; जब शरीर के संबंध में भी उदास रहते हैं अर्थात् शरीर की अनुकूलता की परवाह नहीं करते हैं, तब वे अनुपात्त बाह्य परिग्रह को स्वीकार कैसे कर सकते हैं? अर्थात् स्वीकार नहीं कर सकते। प्रवचनसार गाथा २२४ एवं इस गाथा की दोनों टीकाओं का अध्ययन जरूर करें। जिनधर्म में स्त्रियों के लिंग संबंधी प्रश्न - यत्र लोकद्वयापेक्षा जिनधर्मे न विद्यते। तत्र लिङ्ग कथं स्त्रीणां सव्यपेक्षमुदाहृतम् ।।३९९।। अन्वय :- यत्र जिनधर्मे लोकद्वयापेक्षा न विद्यते तत्र स्त्रीणां लिङ्गसव्यपेक्षं कथम् उदाहृतम्? सरलार्थ :- जिस जिनेन्द्र से उपदेशित वीतराग धर्म में दोनों लोकों की अपेक्षा नहीं पायी जाती अर्थात् इहलोक तथा परलोक को लक्ष्य करके धर्म नहीं किया जाता, उस जिनधर्म में स्त्रियों के लिंग [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/249]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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