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________________ चारित्र अधिकार २४१ मूल विषय समझाने का आचार्य महाराज प्रयास करते हैं - हमें आपको प्राप्त इस एक मनुष्यभव में एक बार ही मरण की बात कही है। यदि जीव सम्यग्ज्ञानादि को अर्थात् मोक्षमार्ग को मलिन करता है अर्थात् मिथ्यादृष्टि हो जाता है तो संसार में अनंत जन्म-मरण करने का महान् दुःख भोगना पड़ता है। मिथ्यात्व से उत्पन्न दुःख की तुलना किसी भी अनर्थ से नहीं की जा सकती, वह शब्दातीत है। ग्रंथकार ने ज्ञात उदाहरणों से दुःख का ज्ञान कराने का प्रयास किया है, जो उचित ही है। ऐसे दुःख से छूटने का उपाय एक सम्यग्दर्शन ही है, अन्य कुछ नहीं। प्रमाद ही बंध का मूल - __अयत्नचारिणो हिंसा मृते जीवेऽमृतेऽपि च। प्रयत्नचारिणो बन्धः समितस्य वधेऽपि नो ।।३८४।। अन्वय :- जीवे मृते च अमृते अपि अयत्नाचारिणः हिंसा (भवति । तथा) समितस्य प्रयत्नाचारिण: वधे अपि बन्धः न (भवति)। ___ सरलार्थ :- जो साधक यत्नाचार रहित अर्थात् प्रमाद सहित है; उसके निमित्त से अन्य जीव के मरने तथा न मरने पर भी हिंसा का पाप होता है और जो साधक ईर्यादि समितियों से युक्त हुआ - यत्नाचारी अर्थात् प्रमाद रहित है, उसके निमित्त से अन्य जीव का घात होने पर भी हिंसा के पाप जन्य कर्म का बंध नहीं होता। भावार्थ :- मोक्षमार्ग के अंगभूत सम्यक्चारित्र में हिंसा की पूर्णतः निवृत्तिरूप अहिंसा महाव्रत की प्रधानता है। उस अहिंसा महाव्रत की मलिनता का विचार करते हुए यहाँ सिद्धान्तरूप में एक बड़े ही महत्त्व की सूचना की गयी है और वह यह कि हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध किसी जीव के मरने-न मरने (जीने) पर अवलम्बित नहीं है। कोई जीव मरे या न मरे, परन्तु जो अयत्नाचारी-प्रमादी है उसको हिंसा का दोष लगने से महाव्रत मलिन होता ही है । जो प्रयत्नपूर्वक मार्ग शोधता हुआ सावधानी से चलता है, फिर भी उसके शरीर से यदि किसी जीव का घात हो जाय तो उस जीवघात का उसको कोई दोष नहीं लगता और इससे उसका अहिंसा महाव्रत मलिन नहीं होता। सारांश यह निकला कि हमारा अहिंसाव्रत हमारी प्रमादचर्या से मलिन होता है, किसी जीव की मात्र हिंसा हो जाने से नहीं। अतः साधु को अपने व्रत की रक्षा के लिये सदा प्रमाद के त्यागपूर्वक यत्नाचार से प्रवृत्त होना चाहिए। इस विषय में पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ के श्लोक ४५ से ४७ में वर्णित श्री अमृतचन्द्र सूरि के निम्न हेतु-पुरस्सर-वाक्य सदा ध्यान में रखने योग्य हैं : "युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि। न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव।। व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम्। म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ।। यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/241]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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