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________________ २४० योगसार-प्राभृत शासनं जिनचंद्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ।। श्लोकार्थ :- भ्रष्ट पंडितों ने और अविवेकी साधुओं ने जिनेन्द्ररूपी चंद्र के शासन अर्थात् जिनेन्द्र भगवान के उपदेश को मलिन किया है। ___ न्यायशास्त्र के संस्थापक तथा आद्य स्तुतिकार स्वनामधन्य आचार्य समंतभद्र ने युक्त्यनुशासन शास्त्र के ५वें श्लोक में कहा है - 'हे वीरजिन! आपके शासन अर्थात् उपदेश में तीन लोक पर एकाधिपत्य स्थापित करने की क्षमता/सामर्थ्य है; तथापि एकाधिपत्य प्राप्त न कर सकने के तीन कारण हैं - पहला कारण कलिकाल का सद्भाव, दूसरा कारण वक्ता का नयसंबंधी अज्ञान और तीसरा कारण है श्रोताओं का कलुषित आशय । आराधना तथा विराधना का फल - आराधने यथा तस्य फलमुक्तमनुत्तरम् । मलिनीकरणे तस्य तथानों बहुव्यथः ।।३८२।। अन्वय :- यथा तस्य (निवृतेः उपायस्य) आराधने अनुत्तरम् फलं उक्तं तथा तस्य (निर्वृते: उपायस्य) मलिनीकरणे अनर्थः तथा बहुव्यथः (उक्तः)। सरलार्थ :- मोक्षमार्ग की आराधना के फलरूप में अनुपम मुक्ति की प्राप्ति होती है और जो जीव मोक्षमार्ग की विराधना करता है, उसको निगोदादि अवस्थारूप अनर्थ अवस्था की प्राप्तिपूर्वक महादुःखरूप फल मिलता है। भावार्थ :- मुक्ति की प्राप्ति में कारण निज आत्मा है और निगोदादि अवस्था में रखडनेरूप संसार की प्राप्ति में भी कारण निज आत्मा ही है। प्रश्न :- मुक्ति की प्राप्ति में निज आत्मा कारण है, यह तो ठीक; परंतु निगोदादि की प्राप्ति में भी निज आत्मा ही कारण है, यह कैसे? उत्तर :- यह न असंभव है और न आश्चर्यकारक; क्योंकि मुक्ति की प्राप्ति में निजशुद्धात्मा की उपासना/आराधना अर्थात् आत्मध्यान कारण है और रखड़ने में निजशुद्धात्मा की विराधना कारण है। दृष्टान्तपूर्वक आत्मविराधना के फल का कथन - तुङ्गारोहणतः पातो यथा तृप्तिर्विषान्नतः। यथानर्थोऽवबोधादि-मलिनीकरणे तथा ।।३८३।। अन्वय :- यथा तुङ्गारोहणत: पात: यथा विषान्नतः तृप्तिः अनर्थः (कारकः भवति) तथा अवबोधादि-मलिनीकरणे (अनर्थः भवति)। सरलार्थ :- जिसप्रकार पर्वत से नीचे गिरना तथा विषमिश्रित भोजन से तृप्ति का अनुभव करना - दोनों महा अनर्थकारी अर्थात् मरण का ही कारण है; उसीप्रकार सम्यग्ज्ञानादि को मलिन अर्थात् दृषित करना अत्यंत अनर्थकारी है अर्थात् दुःखरूप संसार में भटकने का कारण है। भावार्थ :- तुंगारोहण से पतन एवं विषाक्त भोजन का सेवन - इन दोनों दृष्टान्तों से पाठकों को [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/240]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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