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________________ २२६ योगसार-प्राभृत आत्मतत्त्वे पुनर्युक्तः सिद्धिसौध-प्रवेशके ।।३५५।। अन्वय :- अत: मुक्ति-काशिणां कुतर्के अभिनिवेश: न युक्तः पुनः सिद्धिसौध-प्रवेशके आत्मतत्त्वे (अभिनिवेश:) युक्तः ।। सरलार्थ :- इसलिए मोक्षाभिलाषी साधक-श्रावक एवं मुनिराजों को कुतर्क में अपने मन को अर्थात् व्यक्त विकसित ज्ञान को नहीं लगाना चाहिए; प्रत्युत अपने मन को निजात्म तत्त्व में जोडना अर्थात् दृढ़चित्त होना उचित है और यह कार्य स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धि-सदन में प्रवेश करने के लिए प्रवेश द्वार है। भावार्थ :- साधक भले श्रावक हो अथवा मुनिराज, उनके पास जो व्यक्त अर्थात् प्रगट विकसित मति-श्रुतज्ञान है, वही ज्ञान मोक्षमार्ग में प्रवेश करने के लिये संवर-निर्जरा बढ़ाने के लिये और साक्षात् मोक्षप्राप्ति के लिये भी कार्यकारी है, उसे ही 'मन' शब्द द्वारा कहा है। कुतर्क को हटाकर इसी ज्ञान को आत्मसन्मुख कराने का अभिप्राय ग्रंथकर्ता का है। जिसका मन निजात्मतत्त्व में लग गया है अर्थात् जो दृढ़चित्त हुआ, उसका प्रवेश मोक्षमहल में हो ही गया समझो! इसलिए अन्य पाप अथवा पुण्यरूप सभी कार्यों से हटकर मात्र शुद्धात्म-चिंतन में लगे रहना, यही मोक्षमार्ग प्रगट करने का और तदुपरान्त मोक्ष प्राप्त करने का भी यही उपाय है। मुक्त जीव का स्वरूप - (पृथिवी) विविक्तमिति चेतनं परम-शुद्ध-बुद्धाशयाः विचिन्त्य सततादृता भवमपास्य दुःखास्पदम् । निरन्तमपुनर्भवं सुखमतीन्द्रियं स्वात्मजं समेत्य हतकल्मषं निरुपमं सदैवासते ।।३५६।। अन्वय :- (ये) परम-शुद्ध-बुद्धाशयाः विविक्तं इति चेतनं विचिन्त्य सतत-आवृताः दुःखास्पदं भवं अपास्य अपुनर्भवं समेत्य हतकल्मषं निरुपमं निरूपं अतीन्द्रियं स्वात्मजं सुखं सदैव आसते। सरलार्थ :- जो परम शुद्ध-बुद्ध आशय के धारक हैं अर्थात् जिनके श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र आदि अनंत गुणों में मात्र त्रिकाली भगवान आत्मा ही उपादेयरूप से बसा हुआ है; जो कर्मरूपी कलंक से रहित निज शुद्धात्मा का ध्यान करके मात्र उसके प्रति ही अपना सर्वस्व समर्पित कर चुके हैं अर्थात् उसके संबंध में ही आदर-भक्ति रखते हैं; जो मात्र दुःखस्थानरूप संसार का त्याग कर - - - - - - - - नापाया-नुरारणापा परस्परूपणापापाजपपनापपरापापारापजपार अनंत काल पर्यंत इसी रूप में विराजमान रहेंगे। इसप्रकार श्लोक क्रमांक 8३ ५५६ पर्यन्त १४ श्लोकों में यह सातवाँ ‘मोक्ष-अधिकार' पूर्ण हुआ।
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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