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________________ २२५ भावार्थ: इस श्लोक में ग्रंथकर्ता सामान्यजन के हितार्थ अति आवश्यक तत्त्व - श्रवण के लिये करुणाबुद्धि से प्रेरणा दे रहे हैं; क्योंकि प्रारम्भिक अवस्था में तत्त्वश्रवण को छोड़कर अन्य कोई उपाय भी नहीं है । मोक्ष अधिकार -: प्रश्न :- - प्रेरणा मात्र बुधजनों को ही क्यों? मूढजनों को क्यों नहीं? ग्रंथकर्ता का यह पक्षपात हमें अच्छा नहीं लगा । वास्तविक देखा जाय तो प्रेरणा बुधजनों से भी अधिक आवश्यक मूढजनों के लिये है । उत्तर : - यदि तीव्र कषायीं मूढजनों को प्रेरणा देते हैं तो उसका वे लाभ नहीं लेते, उलटा उन्हें कषाय उत्पन्न होती है । उपदेश हमेशा योग्य श्रोता को ही दिया जाता है। इस विषय का विशेष कथन पं. टेकचंदजी रचित सुदृष्टि तरंगिणी शास्त्र के २२वें पर्व के प्रारम्भ में आया है, उसे जरूर देखें । कुतर्क का स्वरूप - बोधरोधः शमापायः श्रद्धाभङ्गोऽभिमानकृत् । कुतर्को मानसो व्याधिर्ध्यानशत्रुरनेकधा ।। ३५४ ।। अन्वय :- • कुतर्क: बोधरोध:, शमापायः, श्रद्धाभङ्गः अभिमानकृत् (च) मानस: व्याधि: (तथा) अनेकधा ध्यानशत्रु: ( अस्ति ) । सरलार्थ :- -कुतर्क, ज्ञान को रोकनेवाला, शांति का नाशक, श्रद्धा को भंग / नष्ट करनेवाला और अभिमान को बढानेवाला मानसिक रोग है। ऐसा यह कुतर्क अनेक प्रकार से ध्यान का शत्रु है । भावार्थ :- आचार्य अपने पाठकों को ध्यान में संलग्न कराना चाहते हैं; अतः ध्यान में बाधक परिणामों से हटने के लिये प्रेरणा दे रहे हैं। इसी अधिकार के ३३२ से ३३४ श्लोकों में वाद-विवाद के परिहार की बात भी आचार्य ने पुनः पुनः कही है। यहाँ वाद-विवाद के व्यर्थ परिणाम को भी हम कुतर्क समझ सकते हैं, जिससे साधक ध्यान से वंचित रहता है। सर्वज्ञ कथित शुद्धात्म तत्त्व के कथन में शंका रखना यह भी महान कुतर्क करना ही है। यह मोक्षाधिकार है और अज्ञानी के ज्ञान में मोक्ष-सुख बोधगम्य नहीं होता; अतः कोई कहता है कि मोक्ष में कहाँ सुख है? ऐसा जो सोचेगा, उसका यह विचार भी कुतर्क ही है। इसलिए आचार्य समंतभद्र ने रत्नकरंडश्रावकाचार में निःशंकित अंग का जो स्वरूप लिखा है, वह हमें यहाँ समझना उपयोगी हैइदमेवेदृशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा । इत्यकम्पायसाम्भोवत् सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ॥ श्लोकार्थ :- यहाँ तत्त्वभूत आप्त, आगम और गुरु का जो लक्षण बताया है, वह ही सत्यार्थ स्वरूप है । ईदृशमेव अर्थात् इसीप्रकार है, अन्यप्रकार नहीं है; ऐसा तलवार की धार के पानी की तरह सन्मार्ग में संशय रहित अकम्प रुचि अर्थात् श्रद्धान होना, यह निःशंकित अंग नाम का गुण है। दृढ़चित्त होना आवश्यक - कुतर्केऽभिनिवेशोऽतो न युक्तो मुक्ति-काङ्क्षिणाम् । [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/225]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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