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________________ मोक्ष अधिकार २१५ निर्जरा, मोक्ष सब होता है तो ध्यान के लिये प्रेरणा देना स्वाभाविक है। इस श्लोक में वादविवाद आदि जिनका निषेध किया वे सब धर्म को प्रगट करने के लिये किये जानेवाले पुण्यमय कार्य ही समझना चाहिए; क्योंकि पापमय क्रिया और परिणामों का तो इसके पहले ही निषेध किया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो धर्म के लिये धर्म के नाम पर किये जानेवाले सब पुण्यमय कार्यों को यहाँ गौण करने की प्रेरणा दी गई है। अतः मुमुक्षु का कर्त्तव्य मात्र निजात्म-ध्यान में लग जाने का ही है। घाति कर्मों का नाश - ऊचिरे ध्यान-मार्गज्ञा ध्यानोद्धृतर ज श च य । । भावि-योगि-हितायेदं ध्वान्त-दीपसमंवचः।।३३४।। अन्वय :- ध्यानोद्भुत रजश्चयाः ध्यान-मार्गज्ञा: भावि-योगि-हिताय इदं ध्वान्त-दीपसमं वचः रुचिरे। सरलार्थ :- ध्यान द्वारा घातिकर्मरूपी रज-समूह को आत्मा से दूर करनेवाले ध्यान-मर्मज्ञ सर्वज्ञ भगवन्तों ने भावी साधक मुनिराजों के लिये अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करनेवाला दीपस्तम्भ समान अगला/ध्यान का उपदेश दिया है। भावार्थ :- उपदेश देनेवाले कौन है? उनकी विशेषताओं के कारण उपदेश का महत्व माना जाता है । उपदेश-दाता घातिकर्मों का नाश कर चुके हैं। उनका साधन ध्यान है, अन्य कोई सामान्य साधन नहीं है। उपदेश-दाता ध्यान के मर्मज्ञ हैं, सर्वज्ञ हैं; वे वीतराग और हितोपदेशी भी हैं। उनका उपदेश दीपस्तम्भ के समान प्रत्येक जीव के लिये उपयोगी है। वाद-विवाद का फल - ___ वादानां प्रतिवादानां भाषितारो विनिश्चितम् । नैव गच्छन्ति तत्त्वान्तं गतेरिव विलम्बिनः ।।३३५।। अन्वय :- गते: विलम्बिनः इव वादानां प्रतिवादानां भाषितारः विनिश्चितं तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति। सरलार्थ :- जिसप्रकार चलने में विलंब करनेवाला प्रमादी मनुष्य अपने इच्छित स्थान पर्यंत नहीं पहुँच पाता; उसीप्रकार जो कोई साधक वाद-प्रतिवाद के चक्कर में पड़े रहते हैं, वे निश्चित रूप से तत्त्व के अंत को अर्थात परमात्म पद को प्राप्त नहीं होते अर्थात संसार में ही भटकते रहते हैं। भावार्थ :- साधक सम्यग्दृष्टि हो, व्रती हो अथवा मुनिराज भी हों, यदि वे वाद-प्रतिवाद में उलझते हैं तो उलझ ही जाते हैं, फिर सुलझना संभव नहीं हो पाता । अतः आत्मकल्याण की इच्छा रखनेवालों को वाद-विवाद से दूर ही रहना हितकारक हैं। इस वाद-विवाद का अति अनिष्ट फल सर्वज्ञ भगवंतों ने हमें बतलाया है; इसलिए इस उपदेश का महत्त्व हमें समझ में लेना आवश्यक है। अपने जीवन में अपने आत्मकल्याण को मुख्य रखनेवाले साधक नियम से सिद्ध बनते हैं अन्यथा [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/215]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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