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________________ २१४ योगसार-प्राभृत रहा; क्योंकि वे सहज ही कृतकृत्य हुए हैं। द्रव्य-भावादि रूप से सर्व प्रकार के मलों एवं विकारों से वे रहित होते हैं, अतः सर्वथा निर्मल अर्थात् पर्याय में भी स्वभाव के समान शुद्ध हुए हैं। वे किसी को कोई बाधा नहीं पहुँचाते और न उन्हें कोई किसी प्रकार की बाधा पहुंचा सकते हैं; क्योंकि वे सभी प्रकार से अबाधित हैं। वे अपने स्वरूप में मग्न हुए सदा आनंदमय रहते हैं; क्योंकि उनसे अधिक सुंदर एवं स्पृहणीय दूसरा कोई भी पदार्थ कहीं नहीं है। समस्त विश्व उनके ज्ञान में प्रतिबिंबित है। ध्यान का फल - ध्यानस्येदं फलं मुख्यमैकान्तिकमनुत्तरम् । आत्मगम्यं परं ब्रह्म ब्रह्मविद्भिरुदाहृतम् ।।३३२।। अन्वय :- ब्रह्मविद्भिः परं ब्रह्म आत्मगम्यं - इदं ध्यानस्य मुख्यं, ऐकान्तिकं (च) अनुत्तरं फलं उदाहृतम्। सरलार्थ :- ब्रह्मवेत्ता/आत्मज्ञ अर्थात् आत्मानुभव से आनंद ही आनंद लूटनेवाले महापुरुषों ने ब्रह्म अर्थात् निज शुद्ध आत्मा का ज्ञान तथा अनुभव करना ही ध्यान का मुख्य, अव्यभिचारी/ निर्दोष और अद्वितीय फल बतलाया है। भावार्थ :- स्वयं ग्रंथकार ने चलिका अधिकार के १४वें श्लोक में ध्यान की परिभाषा निर्मल ज्ञान का स्थिर होना ही ध्यान है - ऐसी बतायी है। ध्यान का मुख्य फल तो आत्मानुशासन ही कहा है। ध्यान का संक्षेप में फल इसप्रकार है - १. ध्यान से ही आत्मा का अनुभव होता है। २. ध्यान से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, ३. ध्यान से ही मोक्षमार्ग प्रगट होता है, ४. ध्यान से ही धर्म व्यक्त होता है, ५. ध्यान से ही व्यक्त/प्रगट धर्म की वृद्धि होती है, ६. ध्यान से वृद्धि-प्राप्त धर्म पूर्णता को प्राप्त होता है, ७. ध्यान से संवर प्रगट होता है, ८. ध्यान से संवर एवं निर्जरा की वृद्धि होती है, ९. ध्यान स्वयमेव आनंदरूप तथा आनंद-दाता है, १० ध्यान से ही द्रव्य-भाव एवं नोकर्मों का नाश होने से सिद्धावस्था की प्राप्ति होती है । एक अपेक्षा से ध्यान ही धर्मक्षेत्र में सबकुछ है। इसलिए धर्म/ सुख चाहनेवाले प्रत्येक मनुष्य को निजशुद्धात्मा का ध्यान करना ही चाहिए। ध्यान के लिए प्रेरणा - अतोऽत्रैव महान् यत्नस्तत्त्वतः प्रतिपत्तये । प्रेक्षावता सदा कार्यो मुक्त्वा वादादिवासनाम् ।।३३३।। अन्वय :- अत: प्रेक्षावता तत्त्वतः (शुद्धात्मनः) प्रतिपत्तये वादादिवासनां मुक्त्वा सदा अत्र (ध्याने) एव महान् यत्नः कार्यः। सरलार्थ :- इसलिए विचारशील भव्य जीवों को वास्तविक देखा जाय तो वादविवाद, चर्चा, ऊहापोह.प्रश्नोत्तर. उपदेश करना आदि सब छोडकर निरंतर इस अत्यंत उपकारक ध्यान के लिए ही महान प्रयास करना चाहिए। भावार्थ :- यदि निज शुद्धात्म के ध्यान से शांति, समाधान, आनंद, सुख, सम्यग्दर्शन, संवर, [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/214]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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