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________________ १९२ योगसार-प्राभृत अन्वय :- येन उद्योतः (प्रकाश:) दृश्यते तेन दीप: तरां किं नं (दृश्यते)। येन (ज्ञानेन) अर्थः ज्ञायते तेन ज्ञानी कथं न ज्ञायते ? सरलार्थ :- जैसे दीपक के प्रकाश को देखनेवाला मनुष्य प्रकाश-उत्पादक उस दीपक को सहजरूप से देखता है। वैसे जो ज्ञान, पदार्थ को जानता है; वही ज्ञान, ज्ञान उत्पादक जीव को भी अवश्य जानता है। भावार्थ :- पिछले पद्य के विषय को यहाँ दीपक और उसके प्रकाश के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है। जिसप्रकार दीपक के प्रकाश को देखनेवाला दीपक को भी देखता है उसी प्रकार जो ज्ञेय रूप पदार्थ को जानता है वह उसके ज्ञायक अथवा जीव को भी जानता है। इस श्लोक में पिछले श्लोक के विषय को मात्र उदाहरण देकर स्पष्ट किया है, नया विषय नहीं है। जो वेद्य को जानता है वह वेदक को जानता ही है - विदन्ति दुर्धियो वेद्यं वेदकं न विदन्ति किम् । द्योत्यं पश्यन्ति न द्योतमाश्चर्यं बत कीदृशम् ।।२९१॥ अन्वय :-दुर्धिय: वेद्यं विदन्ति वेदकं किं न विदन्ति ? द्योत्यं पश्यन्ति द्योतं न बत कीदृशम् आश्चर्यम् (अस्ति)? सरलार्थ :- दुर्बुद्धि वेद्य को तो जानते हैं वेदक को क्यों नहीं जानते? प्रकाश्य को तो देखते हैं किन्तु प्रकाशक को नहीं देखते, यह कैसा आश्चर्य है? भावार्थ :- निःसन्देह ज्ञेय को जानना और ज्ञायक को/ज्ञान या ज्ञानी को न जानना एक आश्चर्य की बात है, जिसप्रकार प्रकाश से प्रकाशित वस्तु को तो देखना, किन्तु प्रकाश को न देखना । ऐसे ज्ञायक के विषय में अज्ञानियों को यहाँ दुर्बुद्धि एवं विकार-ग्रसित बुद्धिवाले बतलाया है। ___ पिछले श्लोक में दीपक और उसके उद्योत की बात को लेकर विषय को स्पष्ट किया गया है, यहाँ उद्योत और उसके द्वारा घोतित (द्योत्य) पदार्थ की बात को लेकर उसी विषय को स्पष्ट किया गया है। द्योतक, द्योत और द्योत्य का जैसा सम्बन्ध है वैसा ही सम्बन्ध ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का है। एक के जानने-से दूसरा जाना जाता है । जिसे एक को जानकर दूसरे का बोध नहीं होता वह सचमुच दुर्बुद्धि है। आचार्य माणिक्यनन्दिकृत परीक्षामुख के प्रथम समुद्देश के नौवें सूत्र में भी लिखा है - कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः अर्थात् प्रमाण (सम्यग्ज्ञान) के द्वारा जैसे घट-पटादि कर्म का बोध होता है, उसीप्रकार कर्ता (ज्ञाता), करण (ज्ञान) और क्रिया (ज्ञप्ति) का भी बोध होता है। शुद्ध आत्मा के ध्यान से कर्मों की निर्जरा - [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/192]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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