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________________ निर्जरा अधिकार ज्ञान की अवस्था को निश्चय से जानता है और अन्य द्रव्यों को भी व्यवहार से जानता है। पुद्गलादि पाँचों द्रव्य ज्ञानरहित हैं, अतः वे अन्य द्रव्यों को भी नहीं जानते। परोक्ष ज्ञान से आत्मा की प्रतीति होती है - प्रतीयते परोक्षेण ज्ञानेन विषयो यदि। सोऽनेन परकीयेण तदा किंन प्रतीयते ॥२८९।। अन्वय :- यदि परोक्षेण ज्ञानेन विषयः प्रतीयते तदा अनेन परकीयेण (परोक्ष-ज्ञानेन) सः (ज्ञानी आत्मा) किं न प्रतीयते ? सरलार्थ :- यदि मति-श्रुतरूप परोक्षज्ञान से स्पर्शादि विषयों का स्पष्ट/प्रत्यक्ष (सांव्यवहारिक) ज्ञान होता है तो इस मति-श्रुतरूप परोक्ष ज्ञान से ही ज्ञानमय आत्मा का स्पष्ट प्रत्यक्ष ज्ञान क्यों नहीं हो सकता? अर्थात् अवश्य हो सकता है। भावार्थ :- आत्मा, जीव द्रव्य है। जीव के अनंत गुणों में ज्ञान गुण प्रधान हैं । ज्ञान गुण के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ऐसे पाँच सम्यग्ज्ञानरूप और कुमति, कुश्रुत एवं विभंगावधि ऐसे तीन मिथ्याज्ञानरूप इसतरह कुल मिलाकर आठ पर्यायरूप भेद हैं। इनमें मतिश्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं। इन्द्रिजयजनित मतिज्ञान मात्र पुद्गल को जानना है और मनजनित मतिश्रुतज्ञान जीवादि द्रव्यों को जानना है । जब मति-श्रुत ज्ञान अपनी ही आत्मा को जानते-अनुभवते हैं तब इन दोनों को ही स्वानुभव प्रत्यक्षज्ञान कहते हैं। इसी विषय को पंडित प्रवर टोडरमलजी ने रहस्यपूर्ण चिट्ठी में विशदरूप से समझाया है, उसको अवश्य देखें। ___ जो जीव अनात्मज्ञानी अर्थात् अधार्मिक और अल्पज्ञ हैं, उसे आत्मज्ञानी और सर्वज्ञ होने का मूल साधन/उपाय उसके पास ही है, अन्य किसीसे कुछ माँगने अथवा लाने की आवश्यकता ही नहीं है, यह महत्त्वपूर्ण तथ्य इस श्लोक में ग्रंथकार बता रहे हैं। अनादिकाल से प्रत्येक जीव को मति-श्रुतरूप दो ज्ञान होते ही हैं। उन ज्ञानों से ही आत्मा को जानना है। प्रश्न :- अन्य ज्ञान से आत्मा को जानना क्यों नहीं होता? उत्तर :- केवलज्ञान मात्र अरहंत-सिद्धों को ही होता है, अतः अल्पज्ञ जीव के पास केवलज्ञान है ही नहीं। अवधिज्ञान एवं मनःपर्ययज्ञान दोनों मात्र पुद्गल द्रव्यों को जान सकते हैं, इसलिए आत्मा को जानने के काम में ये दोनों ज्ञान उपयोगी/काम के नहीं हैं। अतः मतिश्रुतज्ञान आत्मा को जानने में उपयोगी सिद्ध हुए, जो प्रत्येक संसारी जीव के पास नियम से रहते हैं। हम- आप आत्मज्ञान कर सकते हैं - इसमें युक्ति - येनार्थो ज्ञायते तेन ज्ञानी न ज्ञायते कथम् । उद्योतो दृश्यते येन दीपस्तेन तरां न किम् ।।२९०।। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/191]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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