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________________ १५६ योगसार-प्राभृत सरलार्थ :- जैसे लाल फूल के साथ संगति करने से ही स्वभाव से स्वच्छ/निर्मल स्फटिक लाल होता है; वैसे मोह के साथ संगति करने से ही शुद्ध-स्वभावी जीव मलिन होता है। भावार्थ :- विकार अर्थात् विभाव परिणाम में निमित्तरूप वस्तु पर ही होती है, स्वभाव से कोई भी वस्तु विभावरूप परिणमन नहीं करती; यह विषय इस श्लोक में ग्रंथकार बताना चाहते हैं। समयसार गाथा २७८, २७९ तथा इन गाथाओं की टीका में, भावार्थ में और कलश क्रमांक १७५ में भी यही विषय आया है। अतः आत्मार्थी समयसार का पूर्वोक्त अंश सूक्ष्मता से जरूर देखें। जीव पर का संग करने से ही रागादिरूप परिणमता है, स्वभाव से नहीं; इस कथन को आचार्य अमृतचंद्र ने उपरिम गाथाओं की संस्कृत टीका एवं १७५ तथा १७६ कलशों में वस्तुस्वभाव कहा है। मोह का नाश होने पर स्वरूप की उपलब्धि - निजरूपं पुनर्याति मोहस्य विगमे सति । उपाध्यभावतो याति स्फटिकः स्वस्वरूपताम् ।।२३०।। अन्वय :- (यथा) उपाधि-अभावतः स्फटिकः स्वस्वरूपतां याति (तथा) मोहस्य विगमे सति (जीव:) निजरूपं पुन: याति। ___ सरलार्थ :- जिसप्रकार लालपुष्पादिरूप संयोगस्वरूप उपाधि का अभाव हो जाने से स्फटिक अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त होता है; उसीप्रकार मोह का नाश हो जाने पर जीव पुनः अपने निर्मलस्वरूप को प्राप्त होता है। मोह का नाश होने पर सिद्ध-अवस्था की प्राप्ति होती है - ऐसा कहकर यहाँ निमित्त का ज्ञान कराया है। उपादान की अपेक्षा देखा जाय तो जीव जब स्वयं अपनी योग्यता से स्वाभाविक शुद्ध स्वरूप को प्राप्त होता है, तब मोह का स्वयमेव नाश हो जाता है। मोह का त्यागी साधक ही कर्मों का संवर करता है - इत्थं विज्ञाय यो मोहं दुःखबीजं विमुञ्चति । सोऽन्यद्रव्यपरित्यागी कुरुते कर्म-संवरम् ।।२३१।। अन्वय :- इत्थं विज्ञाय यः दुःख-बीजं मोहं विमुञ्चति; स: अन्य-द्रव्य-परित्यागी कर्मसंवरं कुरुते। ___ सरलार्थ :- इसप्रकार मोह को दुःख का बीज जानकर जो साधक मोह को छोड़ता है, वह परद्रव्य का त्यागी होता हुआ कर्मों का संवर करता है अर्थात् कर्मों के आस्रव को रोकता है। ___ भावार्थ :- आस्रव एवं बंध के कारण मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं। इन पाँचों में योग को छोड़कर जो चार परिणाम हैं, उनको संक्षेप में मोह कहते हैं। मोह ही आस्रव-बंध का कारण है। इसलिए मोह का अभाव जितनी मात्रा में होता है, उतनी मात्रा में होनेवाला नया [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/156]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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