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________________ संवर अधिकार १५५ शुद्ध-पर्यायों का उत्पाद अन्य किसी के अवलम्बन के बिना स्वतः अपने ही षट्कारकों से होता है, यह महत्त्वपूर्ण विषय इस श्लोक में बताया है। ___ जो विषय आचार्य कुंदकुंद ने प्रवचनसार गाथा १६ एवं आचार्य अमृतचंद्र ने उसकी टीका में स्पष्ट किया है, उसी विषय को ग्रंथकार ने इस श्लोक में बताया है; अतः पाठक उक्त गाथा, उसकी टीका और भावार्थ को सूक्ष्मता से अवश्य देखें। मिथ्याश्रद्धादि में जीव, स्वयं प्रवृत्त होता है - स्वयमात्मा परं द्रव्यं श्रद्धते वेत्ति पश्यति। शङ्ख-चूर्णः किमाश्रित्य धवलीकुरुते परम् ।।२२८।। अन्वय :- (यथा) शङ्ख-चूर्णः किम् आश्रित्य परं धवली कुरुते ? (स्व आश्रित्य एव; तथा) आत्मा स्वयं (पराश्रयं विना) परं द्रव्यं पश्यति वेत्ति श्रद्धत्ते। सरलार्थ :- जैसे शंख का चूर्ण किसी भी अन्य का आश्रय न लेकर स्वयं दूसरे को धवल करता है; वैसे आत्मा स्वयं परद्रव्य को देखता, जानता और श्रद्धान करता है। भावार्थ :- शंख-चूर्ण के स्वभाव के उदाहरण से जीव मिथ्या श्रद्धानादि करने में स्वतंत्र है, किसी के सहारे से मिथ्या श्रद्धानादि नहीं करता, यह बता रहे हैं। प्रश्न :- आप श्रद्धान का मिथ्या विशेषण अपनी ओर से क्यों लगा रहे हो? उत्तर :- श्लोक में परद्रव्य का श्रद्धानादि बताया है, इससे स्वयं स्पष्ट समझ में आता है कि मिथ्या श्रद्धान की चर्चा है । स्व-स्वभाव के आत्मरूप श्रद्धान का नाम सम्यक्त्व है और पर द्रव्य के आत्मरूप श्रद्धान का नाम मिथ्यात्व है। यहाँ परद्रव्य के श्रद्धान का अर्थ परद्रव्य के निमित्त से सुख-दुःख की प्राप्ति होती है, ऐसा समझना चाहिए। जीव मिथ्यात्वादि विभाव भाव करने में स्वतंत्र है, अन्य किसी पर द्रव्य के कारण जीव मिथ्या श्रद्धानादि करता है, ऐसा नहीं। इसप्रकार विपरीत भाव करने में जीव की स्वतंत्रता इस श्लोक में बतायी। इस विषय के यथार्थ ज्ञान करने के लिये पंचास्तिकाय संग्रह गाथा ६२ एवं उसकी टीका तथा भावार्थ देखना अति आवश्यक है। इसमें पुद्गल तथा जीव के विभाव परिणाम के षट्कारक स्वतंत्र हैं, ऐसा बताया है। जीव की मलिनता में मोह ही निमित्त, स्वभाव नहीं - मोहेन मलिनो जीवः क्रियते निजसंगतः। स्फटिको रक्त-पुष्पेण रक्ततां नीयते न किम् ।।२२९।। अन्वय :- (यथा) रक्त-पुष्पेण किं स्फटिक: रक्ततां न नीयते? (तथा) मोहेन निजसंगत: जीवः मलिनः क्रियते । [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/155]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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