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________________ संवर अधिकार १४५ परिणमनशील जीव की ये सम्यग्दर्शनादि पर्यायें स्वयं से उत्पन्न होती हैं और स्वयं विनाश को प्राप्त होती हैं। इसलिए जीव द्रव्य भी इन सम्यग्दर्शनादि पर्यायों का दाता अर्थात कर्ता-हर्ता नहीं है और न कोई परद्रव्य इन सम्यग्दर्शनादि पर्यायों का उत्पाद तथा व्यय करता है। भावार्थ :- भोग भोगनेरूप परिणामों से सम्यग्दर्शनादि का नाश नहीं होता, यह कहकर आचार्यों ने कर्मधारा और ज्ञानधारा - दोनों का एक साथ रहने में विरोध नहीं है; इस विषय का खुलासा किया है। समयसार कलश क्रमांक ११० एवं इसके भावार्थ में यह विषय अत्यन्त स्पष्ट है; उसे अवश्य देखें । वहाँ चारित्रगुण का मिश्रभावरूप परिणमन स्पष्ट किया है। गुरु भी सम्यग्दर्शनादि उत्पन्न नहीं कर सकते, यह बताकर प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र होता है, यह स्पष्ट किया है और देव-गुरु की सेवा से मात्र पुण्य होता है, धर्म नहीं; यह भी समझाया है। सम्यग्दर्शनादि पर्यायें, (पर्यायदृष्टि से) स्वयं ही उत्पन्न होती हैं; इस कथन से प्रत्येक पर्याय का अपना जन्मक्षण होता है; यह बात स्पष्ट की है। इस विषय के लिये प्रवचनसार गाथा ९९ एवं १०२ की टीका अवश्य देखें। समयसार ग्रन्थ में वर्णित ४७ शक्तियों के प्रकरण में १४वीं अकार्यकारणत्वशक्ति का स्वरूप देखना भी अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा। पर्यायों का दाता द्रव्य भी नहीं है, इस विधान से वस्तु-व्यवस्था की सूक्ष्मता एवं यथार्थता को जानकर हमें आनंदित हो जाना चाहिए। सर्वज्ञ भगवान के बिना इतनी सूक्ष्मता का कथन अन्य कोई वक्ता कर ही नहीं सकता। - इसतरह इन दो श्लोकों में अनेक सूक्ष्म भावों का ज्ञान कराने का सफल प्रयास ग्रंथकार ने किया है। पाठकों का कर्तव्य है कि ग्रंथकार का पूर्ण अभिप्राय समझने का प्रयास करें, कठिन जानकर जिनवाणी की उपेक्षा न करें। व्यवहारनय से शरीरादि आत्मा के कहे जाते हैं, निश्चयनय से नहीं - शरीरमिन्द्रियं द्रव्यं विषयो विभवो विभुः। ममेति व्यवहारेण भण्यते न च तत्त्वतः ।।२१०।। अन्वय :- शरीरं, इन्द्रियं, द्रव्य, विषयः, विभव: च विभुः मम (अस्ति) इति व्यवहारेण भण्यते तत्त्वत: न (भण्यते)। सरलार्थ :- औदारिकादि शरीर, स्पर्शनेन्द्रियादि इन्द्रियाँ, धनादिद्रव्य, स्पर्शादि इन्द्रियों के विषय, अनेक प्रकार का लौकिक वैभव, स्वामी आदि मेरे हैं; ऐसा व्यवहारनय से कहा जाता है; किन्तु तात्त्विक दृष्टि से/निश्चयनय से शरीरादि मेरे/आत्मा के नहीं हैं। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/145]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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