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________________ १४४ योगसार-प्राभृत अन्वय :- यत: मे गुणा: अन्येन कर्तुं हर्तुं न शक्यन्ते (तथा) मया अपि परस्य गुणा: कर्तुं हर्तुं न पार्यन्ते। ___ मया अन्यस्य अन्येन मम गुणः क्रियते-अक्रियते एषा सर्वा कल्पना मिथ्या अस्ति ततः मोहिभिः क्रियते। सरलार्थ :- कोई भी परद्रव्य मेरे गुणों का हरण नहीं कर सकता, न उनको उत्पन्न कर सकता है। मैं किसी भी परद्रव्य के गुणों को उत्पन्न नहीं कर सकता अथवा उनका नाश भी नहीं कर सकता। इसलिए मैंने किसी पर उपकार अथवा किसी पर अपकार किया, ये सब कल्पनाएँ मिथ्या हैं। मोह अर्थात् मिथ्यात्व से प्रभावित मिथ्यादृष्टि जीव ही ऐसी खोटी कल्पनाएँ करता है; अन्य ज्ञानी/ सम्यग्दृष्टि जीव ऐसा नहीं करता। भावार्थ :- इस संसार में अनेक भोले-भाले जीव धर्म के नाम पर परोपकार करने न करने के विकल्पों में उलझकर अपना अमूल्य मनुष्य-जीवन तत्त्वज्ञान से रहित व्यर्थ ही बिताते हैं। ऐसे भद्र जीवों का परम हित हो, इस भावना से प्रेरित होकर आचार्य वस्तु-व्यवस्था की सूक्ष्मता को स्पष्ट कर रहे हैं। जहाँ कोई भी द्रव्य किसी भी अन्य द्रव्य के गुणों को न हरण कर सकता है, न उत्पन्न कर सकता है अथवा न नाश कर सकता है; ऐसा वास्तविक वस्तुगत व्यवस्था का ज्ञान होते ही मैं किसी का अच्छा अथवा बुरा कर सकता हूँ; यह मिथ्या मान्यता निकल जाती है और पात्र जीव आत्मकल्याण के कार्य में संलग्न हो जाता है। आचार्य अपने जीवन के समान अन्य जीवों का भी परम कल्याण हो, इस भावना से अकारण करुणापूर्वक समझाते हैं। सम्यग्दर्शनादि पर्यायों का कोई भी कर्ता-हर्ता नहीं - ज्ञान-दृष्टि-चरित्राणि ह्रियन्ते नाक्षगोचरैः। क्रियन्ते न च गुर्वाद्यैः सेव्यमानैरनारतम् ।।२०८।। उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति जीवस्य परिणामिनः। ततः स्वयं स दाता न, परतो न कदाचन ।।२०९।। अन्वय :- ज्ञान-दृष्टि-चारित्राणि अक्षगौचरैः न ह्रियन्ते च अनारतं सेव्यमानैः गुर्वाद्यैः न क्रियन्ते। परिणामिनः जीवस्य (पर्यायत:) तानि उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति । ततः सः (जीवः) कदाचन स्वयं दाता न (अस्ति)। (च) न परतः (तानि उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च)। सरलार्थ :- स्पर्शनेंद्रियादि इंद्रियों के विषयों को भोगने से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्ररूप पर्यायों का हरन अर्थात् नाश नहीं होता। निरन्तर जिनकी सेवा की गई है ऐसे सच्चे गुरु भी अपने शिष्य में सम्यग्दर्शनादि पर्यायों को उत्पन्न नहीं कर सकते। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/144]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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