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________________ बन्ध अधिकार १२७ द्रव्यों में से किसी द्रव्य की कोई पर्याय नहीं होती। ___ यह एक तात्त्विक सिद्धान्त का निर्देश है और इस बात को सूचित करता है कि ये सब चेतनअचेतन द्रव्य चाहे जितने काल तक परस्पर में एकक्षेत्रावगाह रूप मिले-जुलें, सम्पर्क-सम्बन्ध अथवा बन्ध को प्राप्त रहें; परन्तु वस्तुतः कोई भी चेतन द्रव्य कभी अचेतन और अचेतन द्रव्य कभी चेतन नहीं होता। इस सिद्धान्त के विपरीत जो कुछ प्रतिभास या कल्पना की जाती है, वह सब मिथ्या है। ज्ञानी अबंधक एवं अज्ञानी बंधक - ज्ञानीति ज्ञान-पर्यायी कल्मषानामबन्धकः। अज्ञश्चाज्ञान-पर्यायी तेषां भवति बन्धकः ।।१७५।। अन्वय :- इति (यः) ज्ञानी ज्ञान-पर्यायी (अस्तिः सः) कल्मषानां अबन्धकः (भवति) (यः) च अज्ञः अज्ञान-पर्यायी (अस्तिः सः) तेषां (कल्मषानां) बन्धकः भवति। सरलार्थ :- जो ज्ञानी अर्थात सम्यग्दष्टि आदि साधक हैं, वह ज्ञान-पर्यायी अर्थात ज्ञानरूप परिणमन को लिये हुए हैं; इसलिए मिथ्यात्वादिरूप पापकर्मों के अबन्धक हैं। और जो अज्ञानी हैं वह अज्ञान-पर्यायी हैं; अर्थात् अज्ञानरूप परिणमन को लिये हुए हैं, इसलिए वे मिथ्यात्वादि पापकर्मों के बन्धक हैं। भावार्थ :- अध्यात्मशास्त्र में सम्यग्दृष्टि को ज्ञानी और मिथ्यादृष्टि को अज्ञानी कहते हैं। इस विभाजन को छोड़कर मार्गणा, गुणस्थानादि अथवा अन्य कोई विभाजन अध्यात्म में विवक्षित नहीं होता । सम्यग्दृष्टि को मिथ्यात्व एवं अनंतानुबंधी का बन्ध नहीं होता, इतने मात्र से ही उसे अबन्धक कहते हैं । मात्र इतना ही नहीं, सम्यग्दृष्टि आदि के जो कषाय-नोकषायरूप परिणाम भी होते हैं, उन परिणामों को भी उपचार से ज्ञानमय कहते हैं; क्योंकि ज्ञानी उन्हें भी विभावरूप जानता है, उनका कर्ता-भोक्ता नहीं बनता। इस विषय का विशद ज्ञान करने के लिये समयसार शास्त्र की गाथा १२६ से १३१ पर्यंत की टीका, भावार्थ सहित सूक्ष्मता से पढ़ना चाहिए। कर्मफल को भोगनेवाले ज्ञानी और अज्ञानी में अन्तर - दीयमानं सुखं दुःखं कर्मणा पाकमीयुषा। ज्ञानी वेत्ति परो भुङ्क्ते बन्धकाबन्धकौ ततः ।।१७६।। अन्वय :- पाकं ईयुषा कर्मणा दीयमानं सुखं दुःखं ज्ञानी वेत्ति परः (अज्ञानी) भुङ्क्ते ततः (तौ द्वौ) बन्धकाबन्धकौ (भवतः)।। सरलार्थ :- पूर्वबद्ध कर्म के अनुभाग-उदय से प्राप्त सुख और दुःख को ज्ञानी जीव मात्र जानता है और अज्ञानी भोगता है। इसकारण ज्ञानी कर्मों का अबन्धक है और अज्ञानी बन्धक। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/127]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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