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________________ १२६ योगसार-प्राभृत अन्वय :- यथा - वस्तु (तथा) परिज्ञानं ज्ञानिभिः ज्ञानं उच्यते पुनः (यत् परिज्ञानं) रागद्वेष-मद-क्रोधैः सहितं (भवति तत्) वेदनं (उच्यते)। सरलार्थ :- जो वस्तु जिस रूप में स्थित है, उसे उसी रूप में जानने को ज्ञानीजनों ने ज्ञान कहा है और जो जानना राग-द्वेष, मद, क्रोध सहित होता है, उसे वेदन कहते हैं। भावार्थ :- यद्यपि 'ज्ञान' और 'वेदन' दोनों शब्द सामान्यतः जाननेरूप एकार्थक हैं; परन्तु पूर्व श्लोक में ज्ञान और वेदन को शब्द-भेद से ही नहीं; किन्तु अर्थभेद से भी भेदरूप उल्लिखित किया है, वह अर्थभेद क्या है, उसको बतलाने के लिये ही इस श्लोक में दोनों का लक्षण दिया है। ज्ञान का लक्षण यथावस्तु-परिज्ञान दिया है, जिसका आशय है बिना किसी पर के मिश्रण अथवा मेल-मिलाप के वस्तु का यथावस्थितरूप में शुद्ध (खालिस) जानना ज्ञान है । वेदन उस जानने को कहते हैं, जिसके साथ में मोह-राग-द्वेष, अहंकार, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति. शोक, भय, जगप्सादि विकार भाव मिल जायें। अर्थात किसी वस्त के देखते ही इनमें से कोई विकार भाव उत्पन्न हो जाय, उस विकार के साथ जो उसका जानना है/अनुभव है, वह वेदन कहलाता है। पूर्ण वीतराग गुणस्थानवर्ती मुनिराज, अरहन्त एवं सिद्ध भगवान राग-द्वेष रहित मात्र जानते हैं; अतः उन्हें ज्ञान ही है, वेदन नहीं और अन्य मिथ्यादृष्टि जीव वीतरागी न होने के कारण उन्हें मात्र वेदन है । साधकों को अपने-अपने गुणस्थान के अनुसार ज्ञान और वेदन दोनों भी यथापदवी रहते हैं। ज्ञान और अज्ञान का एक-दूसरे में अभाव - नाज्ञाने ज्ञान-पर्यायाः ज्ञाने नाज्ञानपर्ययाः। नलोहे स्वर्ण-पर्याया न स्वर्णेलोह-पर्ययाः ।।१७४।। अन्वय :- (यथा) लोहे स्वर्ण-पर्यायाः न (सन्ति), स्वर्णे (च) लोह-पर्यायाः न (सन्ति ; तथा) अज्ञाने ज्ञान-पर्यायाः न (सन्ति), ज्ञाने (च) अज्ञान-पर्यायाः न (सन्ति)। सरलार्थ :- जिसप्रकार लोहे में स्वर्ण की पर्यायें और स्वर्ण में लोह की पर्यायें नहीं होती; उसीप्रकार अज्ञान में ज्ञान की पर्यायें और ज्ञान में अज्ञान की पर्यायें नहीं होती। भावार्थ :- अज्ञान शब्द से यहाँ पूर्व श्लोक में प्रयुक्त वह मिथ्याज्ञानजन्य वेदन विवक्षित है जो राग-द्वेषादि विकारों से अभिभूत होता है, उसमें शुद्ध ज्ञान की पर्यायें नहीं होती और ज्ञान से वह सम्यग्ज्ञानजन्य शुद्ध ज्ञान विवक्षित है जिसमें अशुद्ध ज्ञान (वेदन) की पर्यायें नहीं होतीं। यहाँ निम्नप्रकार भी विशेष विचार करना योग्य रहेगा - सामान्य से 'अज्ञान' शब्द से जिसका ग्रहण है वह धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल - इन पाँच अचेतनात्मक द्रव्यों का समूह है, इनमें से किसी भी द्रव्य में ज्ञान की पर्यायें नहीं होतीं, उसीप्रकार जिसप्रकार लोहे में सुवर्ण की पर्यायें नहीं होतीं। और 'ज्ञान' शब्द से जिसका ग्रहण है, वह है चेतनात्मक 'जीव' द्रव्य, इसमें अजीव [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/126)
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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