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________________ १४७ १४६ ये तो सोचा ही नहीं है, उससे कभी सिरदर्द हो जाता है, कभी पेट में पीड़ा होने लगती है। कभी सीने में दर्द होने लगता है। पेट तो आखिर पेट ही है, जिसे पेट की परवाह नहीं, जिसे जीभ पर कंट्रोल नहीं, उसका तो आये दिन यही हाल होना है। कारण एक है, बीमारियाँ अनेक दिखी हैं। उन्हें यह सब बता दिया है, फिर भी आये दिन बिना वजह अनेक डॉक्टरों की भीड़ इकट्ठी कर लेते हैं। कौन समझाये इनको ? डॉक्टरों को क्या ? उनका तो धंधा है। फीस मिलती है सो दौड़े चले आते हैं।" ___डॉक्टर ने आगे कहा - "मैंने तो साफ-साफ कह दिया - इस काम के लिए भविष्य में आप मुझे कभी फोन न करें। ये क्या खिलवाड़ है ? एक ओर बड़े-बड़े डॉक्टरों की लाइन लग रही है, दूसरी ओर वैद्य, हकीम, जंत्र-तंत्र-मंत्र और गण्डा ताबीज वाले, पण्डा-पुजारी सब एक साथ बिठा रखे हैं। बड़े आदमी के मायने यह तो नहीं कि चाहे जिसको लाइन में लगा दे। हर एक के अपने कुछ सिद्धान्त होते हैं, पैसा ही तो सब कुछ नहीं है। और भी जिन चिकित्सकों में जरा भी स्वाभिमान था, उन्होंने भी आना बन्द कर दिया। धीरे-धीरे मुहल्ले के लोग भी समझने लगे कि "धनेश के यहाँ भीड़-भाड़ का कारण और कुछ नहीं, उसे दो-चार छींके आ गईं होंगी।" ज्ञानेश के सत्संग से हुए परिवर्तन के पूर्व यह इमेज थी धनेश की। वही धनेश जब से ज्ञानेश के अन्तर-बाह्य व्यक्तित्व से प्रभावित हुआ, उसके सान्निध्य में रहकर स्वाध्याय और सत्संग करने लगा, तब से उसका जीवन ही बदल गया। __ अब मरणतुल्य पीड़ा में भी वह मुंह से उफ तक नहीं निकालता। पास के पलंग पर सो रही अपनी पत्नी धनश्री को भी नहीं जगाता। जगाना तो बहुत दूर, उसे अपनी असह्य पीड़ा का पता तक नहीं चलने देता। अब उसकी बैचेनी को या तो वह जानता था या भगवान । कहाँ करनी का फल तो भोगना ही होगा से आ गई अनायास यह सहनशक्ति उसमें ? कैसे हुआ इतना भारी परिवर्तन ? जब सारा शहर गहरी नींद में सो रहा होता, सड़कें सुनसान हो जातीं, सिपाहियों की सीटियों के सिवाय कहीं/कोई आवाज सुनाई नहीं देती, तब बीमार व्यक्तियों की दुख-दर्द भरी कराहने की आवाजें सम्पूर्ण वातावरण को करुण रस से भर देती हैं। अस्थमा से पीड़ित धनेश रात-भर सो नहीं पाता, फिर भी अब वह किसी को डिस्टर्ब नहीं करता। यद्यपि धनश्री देर रात तक जाग-जागकर पति के दुख में सहभागिनी बनने का पूरा-पूरा प्रयत्न करती, परन्तु शरीर तो आखिर शरीर ही है, जब वह थककर चूर-चूर हो जाती तो न चाहते हुए भी बैठे-बैठे ही उसे नींद आ ही जाती। धनेश अब धनश्री को थोड़ा भी कष्ट नहीं देना चाहता था। अत: धनश्री के सो जाने पर वह उसे जगाता नहीं है: पर उसकी पीडा की कराहें कच्ची नींद में सोई धनश्री के कानों में टकराने से, उसकी दुःखभरी आहों और कराहों से वह स्वयं ही चौंक-चौंक पड़ती। वह जब भी आँख खोलकर देखती तो वह धनेश को तड़पता ही पाती। कुछ गिरने के धमाके से जब धनश्री की नींद खुली और उसने उठकर देखा तो पानी का लोटा नीचे पडा था. पानी पलंग पर फैल गया था और धनेश पलंग पर औंधे मुँह पड़ा प्यास से तड़फ रहा था। वह सांस लेने में भी भारी कठिनाई अनुभव कर रहा था । घड़ी की ओर देखा तो उस समय तीन बज रहे थे। धनश्री ने धनेश की पीठ सहलाते हुए पूछा - "तबियत कैसी है, क्या अभी तक नींद बिल्कुल भी नहीं आई ? जब नींद नहीं आ रही थी, बेचैनी बढ़ रही थी तो ऐसी स्थिति में उठे ही क्यों ? तुमने मुझे जगा क्यों नहीं लिया ?" धनेश ने कहा - "मैंने यह सोच कर नहीं जगाया कि तुम्हें जगाने
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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