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________________ करनी का फल तो भोगना ही होगा १४५ 74 इक्कीस करनी का फल तो भोगना ही होगा एक दिन वह था, जब धनेश साधारण-सी शारीरिक पीड़ा को इतना अधिक तूल देता था, जिससे सारा घर परेशान हो जाता था। माथे में, पेट में, पीठ में, कहीं भी जरा-सी भी पीड़ा क्यों न हो जाए, हाथ-पैर-कमर आदि शरीर के किसी भी अंग में किसी भी प्रकार का किंचित् भी कष्ट क्यों न हो जाए, वह पूरे घर का खाना और सोना हराम कर देता था, पूरे मोहल्ले में हलचल मचा देता था, जमीन-आसमान एक कर देता था। चीख-चीख कर कहता - "मैं सिर दर्द के कारण मरा जा रहा हूँ, पेट दर्द से मेरा बुरा हाल हो रहा है, सांस लेने में मेरे प्राण-से निकलते हैं; क्या करूँ ? कुछ समझ में नहीं आता; तुम्हें कैसे बताऊँ कि मुझे कितना भारी दर्द है। सारा शरीर ऐसा भनभना रहा है, मानो सौ-सौ बिच्छुओं ने एक साथ काट लिया हो।" यद्यपि उसे कभी भी बिच्छू ने काटा नहीं था, जिससे सौ-सौ बिच्छुओं के काटने के दर्द की तुलना करता; पर अपनी पीड़ा को व्यक्त करने का उसके पास अन्य कोई उपाय भी तो नहीं था। उसे पीड़ा से उतनी परेशानी नहीं थी, जितनी पीड़ा के भय से। पीड़ा का भय उसे अधिक परेशान करता था। मानवीय मनोविज्ञान के मुताबिक उसे धीरे-धीरे मन में अनुभव भी वैसा ही होने लगता था। जिस तरह बालक इन्जेक्शन लगाने के पहले ही जोर-जोर से रोने लगता है; जबकि अभी उसे सुई चुभने का दर्द नहीं हुआ, परन्तु वह उसके भय से भयभीत है। वह कहता -"मुझसे दर्द सहा नहीं जा रहा है। जो भी उपाय करना हो, जल्दी करो। रामू कहाँ मर गया ? उससे कहो वैद्य को बुलाकर लाये, डॉक्टरों को भी फटाफट फोन कर दो, मन्त्र-तन्त्र वाले पण्डित को भी खबर तो कर ही दो, झाड़ने-फूंकने वाले को भी बुला लो। सबको अपने-अपने तजुर्बो का प्रयोग करने दो।" माँ आश्चर्य मुद्रा में कहती - “सबको एकसाथ !" धनेश कहता - "हाँ-हाँ, सबको एक ही साथ।....सबको एकसाथ बुलाने में अपना हर्ज ही क्या है ? फीस ही तो लगेगी। जबतक डॉक्टर लोग नहीं आ पाते, तबतक दादी अपने नुस्खे ही आजमा कर देख ले।" सहानुभूति दिखाते हुए स्नेहवश पत्नी पैर दबाने लगती, माँ माथे पर हाथ फेरने लगती, दादा-दादी देवी-देवताओं से मनोतियाँ मनाने लगते, पिताजी परमात्मा से प्रार्थना करने लगते । डॉक्टरों को फोन कर दिये जाते, वैद्य बुलाने की व्यवस्था हो जाती; परन्तु दु:ख तो पाप का फल है, वह तो स्वयं ही भुगतना पड़ता है। जिसे खाने-पीने में भक्ष्य-अभक्ष्य का कोई विवेक नहीं, व्यापार में न्याय-नीति नहीं, धर्नाजन में साधन-शुद्धि की परवाह नहीं;" उसे इन पापों का फल भुगतना तो पड़ेगा ही, चाहे हंसकर भोगे या रोकर । ___ यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि - रो-रो कर भुगतने से अति संक्लेश भाव होते हैं। उन भावों से पुन: पाप का बन्ध होता है, धनेश को इस बात का ज्ञान नहीं था। एक दिन पड़ौसी ने बड़ी उत्सुकता से चैकअप करने आये एक बड़े डॉक्टर से पूछा -“डॉक्टर साहब ! आये दिन क्या हो जाता है धनेश को, जो आप लोगों को रोज-रोज टाइम-बे-टाइम कष्ट उठाना पड़ता है ?" डॉक्टर का उत्तर था - "अरे भाई ! फिलहाल बीमारी कुछ खास नहीं है, ओवरड्रिंकिंग और ओवरडाइट के कारण गैसेस ट्रबल हो जाती
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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