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________________ ११८ ये तो सोचा ही नहीं रोमांचित हो जाता है, कलेजा काँप जाता है; अंग-अंग सिहर उठता है; आँखों से गंगा-जमुनी धारायें फूट पड़तीं हैं। कुछ समझ में नहीं आता, अब मैं क्या करूँ? कहते-कहते मोहन का गला भर आया । वह आगे कुछ न बोल सका। - - मोहन ने स्वयं को संभाल कर अपनी बात को जारी रखते हुए कहा - "ज्ञानेशजी ! मेरी कहानी बड़ी विचित्र है। आप तो मात्र इतना ही जानते हो कि मैं आपके बालसखा धनेश का श्वसुर हूँ। संभवतः इससे आगे आपको कुछ भी पता नहीं है। कभी समय मिलने पर मैं आपको अपनी व्यथा-कथा कहकर अपने मन का बोझ कम करना चाहता हूँ। मैं अभी उस दुर्भाग्यपूर्ण कथा को कहकर आपका एवं इन जिज्ञासु जीवों का कीमती समय बर्बाद नहीं करना चाहता, पर क्या करूँ? कहे बिना रहा भी तो नहीं जाता। यदि आपकी आज्ञा हो तो...... ज्ञानेशजी ने सोचा- "इसके मन का बोझ कम करने के लिए इसके मन में उमड़ रहे मानसिक दुःख के बादलों को बरसने का समय तो देना ही होगा; अन्यथा अपनी चर्चा इसके माथे के ऊपर से ही निकल जावेगी, अत: भावनाओं का विरेचन तो होना ही चाहिए।" 33 ऐसा विचार कर ज्ञानेशजी ने कहा- "कहो, कहो, अवश्य कहो !" मोहन ने सोचा- "सबके सामने कहने में संकोच कैसा? जब जगत के सामने पाप करने में संकोच नहीं किया तो जगत के सामने प्रायश्चित्त करने में संकोच क्यों ?" ऐसा निश्चय करके वह बोला “ज्ञानेशजी ! जवानी के जोश में व्यक्ति होश खो बैठता है। ऊपर से यदि आर्थिक अनुकूलता मिल जाए तब तो फिर कहना ही क्या है ? मेरे पिताजी बहुत बड़े व्यापारी तो थे ही, जमीन-जायदाद भी 61 पश्चात्ताप भी पाप है ११९ उनके पास बहुत थी। खेती से, साहूकारी से और व्यापार से अनापशनाप आमदनी थी उन्हें। सारे काम-काज तो उनकी देख-रेख मुनीमगुमाश्ते और नौकर-चाकर ही करते थे। पिताजी का पुण्यप्रताप ऐसा था कि उनके प्रभाव से बड़े-बड़े बुद्धिमान और बलवान व्यक्ति उनकी सेवा में सदैव तैयार रहते और उनके इशारों पर दौड़-दौड़ कर काम करते। आज्ञा उल्लंघन करने की तो किसी की हिम्मत ही नहीं थी । सामाजिक कार्यों में तो वे सिरमौर थे ही, राजनीति में भी थोड़ाबहुत दखल रखते थे । इन सब कारणों से मेरा बचपन तो एक राजकुमार की तरह ठाठ-बाट से बीता ही, युवा होने पर भी मैंने कोई जिम्मेदारी महसूश नहीं की। मतलबी मित्रों के चक्कर में आ जाने से मदिरापान जैसे दुर्व्यसनों में फंस गया। बस, फिर क्या था ? दिन-रात अपने दोस्तों के साथ राग-रंग और मौज-मस्ती में समय बीतने लगा । बस, ऐसे में ही मेरा विवाह हो गया। दुर्भाग्य से कुछ समय बाद ही पिताजी परलोक सिधार गये। पिता की मृत्यु से माँ अर्द्धविक्षिप्त सी हो गई। मेरी विषयासक्त प्रवृत्ति एवं लापरवाही का लाभ उठाकर धीरे-धीरे जमीन जोतनेवाले किसानों ने जमीन हड़प ली। साहूकारी मुनीम-गुमाश्तों ने अपने-अपने हस्तगत कर ली। उचित देखभाल के अभाव में व्यापार उद्योग ठप्प हो गया । लेन-देन के चक्कर में धोखाधड़ी के झूठे आरोपों में मुझे दो वर्ष की जेल हो गई। ऐसे भावों के फलस्वरूप एक ही झकोरे में सब कुछ मिट्टी में मिल गया । पत्नी एवं पुत्र-पुत्रियाँ अनाथ हो गये। उनकी दुर्दशा की कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं।' ज्ञानेशजी ने आश्वस्त करते हुए कहा- "देखो, जो हो गया वह तो हो ही गया, उसके पछताने से अब होगा क्या ? भूत की भूलों को भूल जाओ, वर्तमान को संभालो, भविष्य अपने आप संभल जायेगा ।
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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