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________________ ११६ पश्चात्ताप भी पाप है 60 ये तो सोचा ही नहीं आँधी में किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहा है। जानते हो इस मानसिक सोच के रूप में तुम्हें यह कौन-सा 'ध्यान' हो रहा है? और इसका क्या फल होगा ?" ज्ञानेशजी की बातें सुनकर मोहन स्तब्ध रह गया। उसने मन ही मन सोचा - "ध्यान ? मैंने तो आज तक कभी कोई ध्यान किया ही नहीं, मुझे ध्यान करना आता ही कहाँ है ? मैंने कभी ध्यान करने का सोचा भी नहीं। ध्यान करना तो साधु-संतों का काम है। पिता के निधन के बाद मुझे तो दिन-रात घी, नमक, तेल, तंदुल और परिवार की चिन्ता में धर्म ध्यान करने की बात सोचने की भी फुर्सत नहीं मिली। क्या चिन्ता-फिकर करना भी कोई ध्यान हो सकता है ? मेरे माथे पर चिंता की रेखाएँ हो सकती हैं, पर माथे की उन लकीरों में ऐसा क्या लिखा है जो ज्ञानेशजी ने पढ़ लिया है? मैंने तो इस विषय में किसी से कुछ कहा भी नहीं है। ये अन्तर्यामी कब से बन गये?" मोहन की चिन्तित मुद्रा को देख ज्ञानेशजी ने पुन: कहा- “मैं समझ गया कि तुम क्या सोच रहे हो ? किस चिन्ता में घुल रहे हो? मोहन तुम दुर्व्यसनों से तो मुक्त हो गये; पर पश्चात्ताप की ज्वाला में अभी भी जल रहे हो। तुम्हें पता नहीं, ये पश्चाताप की ज्वाला में जलती भावना भी तुम्हें इस दुःखद संसार सागर से पार नहीं होने देगी। इसे शास्त्रों में आर्तध्यान कहते हैं।" एक श्रोता ने पूछा - "क्या ध्यान भी कई तरह के होते हैं?" ज्ञानेश ने उत्तर दिया - “हाँ, मन में जो दूसरों के बुरा करने के या भोग के भाव होते हैं, ये अशुभ भाव खोटे आर्तध्यान हैं। देखो ! यद्यपि बाहर में प्रगट पाप करने से पत्नी रोकती है, मातापिता समझाते हैं, पुत्र-पुत्रियों का राग पाप न करने की परोक्ष प्रेरणा देता रहता है। काया से यदि कोई पाप करता है तो सरकार भी दण्ड देती है, यदि वाणी से कोई पाप करता है तो समाज उसका बहिष्कार कर देती है; परन्तु यदि कोई भावों में पाप भाव रखे, दुःखी मन से पश्चात्ताप रूप रूप आग की ज्वाला में जले तो उस पर किसी का वश नहीं चलता। उन पर तो धर्म उपदेश ही अंकुश लगा सकता है, जो हमें बताता है कि पाप भाव का फल कुगति है।" इस तरह मोहन ज्ञानेश की चर्चा से पूरी तरह संतुष्ट था। उसे ऐसा लगा - सचमुच तो ये ही बातें सुनने जैसी हैं। यह सोचते हुए वह अपने अतीत में खो गया, अपने में अबतक हुई पाप परिणति का आत्मनिरीक्षण करने लगा। ज्ञानेशजी ने मोहन को संबोधते हुए पुनः कहा - "अरे मोहन! कहाँ खो गये? क्या सोच रहे हो ? संभलकर बैठते हुए मोहन ने कहा - "सचमुच हमारे तो दिन-रात पाप का ही चिन्तन चलता है, पाप की धुन में ही मग्न रहते हैं। धर्म ध्यान करना तो बहुत बड़ी बात है, हम तो धर्म ध्यान की परिभाषा भी नहीं जानते । यही कारण है कि - कर की मालायें फेरते-फेरते युग बीत गया; पर मन का फेर नहीं गया। ___ मैं आपसे क्या छिपाऊँ ? आप तो मेरे सन्मार्गदर्शक हैं, मैंने अपने जीवन में बहुत पाप किये हैं। आपको ज्ञात हो या न हो; पर सच यह है कि मेरे दुर्व्यसनों के कारण मेरी पत्नी विजया तो जीवन भर परेशान रही ही, मेरी दोनों पुत्रियाँ धनश्री एवं रूपश्री भी सुखी नहीं रहीं। उनका भी सारा जीवन दु:खमय हो गया, बर्बाद हो गया। उन्हें देख-देख मेरा मन आत्मग्लानि से इतना भर रहा है कि अब और कुछ करना-धरना सूझता ही नहीं है। धर्म-कर्म में भी मन बिल्कुल लगता ही नहीं है। उनके दुःख की कल्पना मात्र से मेरा रोम-रोम
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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