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________________ ११० ये तो सोचा ही नहीं यदि ऊँट, बैल, गधा, घोड़ा हो जायेंगे तो शक्ति से भी कई गुना अधिक भार लाद कर जोता जायेगा; चलते नहीं बनेगा तो कोड़े पड़ेंगे, लातों-घूसों से मार पड़ेगी; जरा कल्पना करके तो देखें ! जेठ माह की गर्मी, माघ माह की शीत और मूसलाधार बरसात में भूखे-प्यासे खुले आकाश में खड़े रहना पड़ेगा। सब कुछ चुपचाप सहना होगा। कहनेसुनने लायक जबान भी नहीं मिलेगी। मछली, मुर्गी, सूअर, बकरा, हिरण जैसे दीन-हीन पशु हो गये तो मांसाहारियों द्वारा जिन्दा जलाकर भूनकर, काट-पीट कर खाया जायेगा । यदि हम चारों गतियों के अनन्तकाल तक ऐसे अनन्त दुःख नहीं सहना चाहते हैं तो अपने भावों को पहचाने, वर्तमान परिणामों की परीक्षा करें और यह समाज की झूठी सच्ची नेतागिरी, यह न्यायअन्याय से कमाया धन, ये स्वार्थ के सगे कुटुम्ब परिवार के लोग कहाँ तक साथ देंगे? इस ओर भी थोड़ा विचार करें। क्या सम्राट सिकन्दर के बारे में नहीं सुना ? उसने अनेक देशों को लूट-खसोटकर अरबों की सम्पत्ति अपने कब्जे में कर ली थी । अन्त में जब उसे पता चला कि मौत का पैगाम आ गया है, तब उसे अपने किए पापों से आत्मग्लानि हुई । वह सोचने लगा- 'अरे! मैंने यह क्या किया ? तब उसने स्वयं कहा कि - "मेरी अर्जित सम्पत्ति मेरी अर्थी के आगे पीछे प्रदर्शित करते हुए मेरी अर्थी के साथ ले जाना और मेरे मुर्दा शरीर के दोनों हाथ बाहर निकाल देना, ताकि जगत मेरे जनाजे से मेरी खोटी करनी के खोटे नतीजे से कुछ सबक सीख सके।' उसकी अन्तिम इच्छा के अनुसार संसार की असारता और लूटखसौट के दुःखद नतीजों का ज्ञान कराने के उद्देश्य से उसकी शवयात्रा के साथ सारा लूट का माल जुलूस के रूप में पीछे लगा दिया गया और 57 हार में भी जीत छिपी होती है १११ उसके दोनों खाली हाथ अर्थी के बाहर निकाल दिये गये। एक फकीर साथ-साथ गाता जा रहा था - सिकन्दर बादशाह जाता, सभी हाली मवाली हैं। सभी है साथ में दौलत, मगर दो हाथ खाली हैं ।। " ज्ञानेशजी का प्रवचन सुनकर तो सेठ साहब गद्गद् हो गए। सेठ ही क्या, उस समय तो सभी की आँखे गीली हो गईं। लोग रूमाल निकालनिकाल कर अपनी आँखें पोंछने लगे। विद्याभूषण ने कहा - "भाई मैं तो रुकूँगा ही और मैं तो कहूँगा तुम भी रुको। इतना सुनने-समझने के बाद किस मायाजाल में फँसे हो ?" यद्यपि ज्ञानेश संस्कृत - प्राकृत नहीं जानता था, परन्तु उसने सत्यान्वेषण में कोई कोर-कसर नहीं रखी। आध्यात्मिक ज्ञानगंगा में गहरे गोते लगाये; क्योंकि उसने लक्ष्य बनाया था, दृढ़ संकल्प किया था कि मैं सत्य की शोध करके ही रहूँगा और इसका लाभ मुझे तो मिलेगा ही, जन-जन तक भी मैं इस ज्ञानगंगा को पहुँचाऊँगा । उसने हारकर भी हारना नहीं सीखा। उसने इतिहास में पढ़ा था कि मोहम्मद गौरी पृथ्वीराज चौहान से एक बार नहीं, दो बार नहीं, तीन बार नहीं; पूरे सत्रह बार हारा फिर भी उसने हार नहीं मानी। यदि वह सत्रह बार में कहीं एक बार भी हारकर बैठ जाता तो उसकी अठारहवीं बार की जीत उसकी विजय का इतिहास नहीं बन पाती। अठारह वीं बार की जीत ने सत्तरह बार की हार को भी अविस्मरणीय इतिहास बना दिया । ज्ञानेश यह भी जानता था कि अत्यन्त साधारण से परिवार में एवं छोटे से गाँव में जन्मे अब्राहमलिंकन ने अपने जीवन में क्या-क्या मुसीबते नहीं झेलीं ? मानो वह भी हार का पर्याय बन गया था, अनेक
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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