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________________ पन्द्रह हार में भी जीत छिपी होती है सेठ लक्ष्मीलाल विद्याआश्रम में विशिष्ट अतिथि के रूप में मात्र एक दिन के लिए आये थे, दूसरे दिन का वापिसी टिकिट भी साथ लाए थे। अधिक ठहरने का उनके पास समय ही कहाँ ? व्यापार के अलावा सामाजिक संस्थाओं वाले भी इन्हें पदों का प्रलोभन देकर उलझाये रहते हैं। इन सबके बावजूद भी ज्ञानेश के एक घण्टे के भाषण से ही वे इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने समस्त आगामी कार्यक्रम निरस्त करके तथा अनुकूलताओं-प्रतिकूलताओं की परवाह न करके जो भी सुविधायें संभव थीं, उन्हीं में संतोष करके पूरे पन्द्रह दिन रुककर प्रवचनों का लाभ लेने का निश्चय कर लिया। सेठ के साथ में आए प्रो. गुणधरलाल, विद्याभूषण और बुद्धिप्रकाश को सेठजी के इस आकस्मिक परिवर्तन पर आश्चर्य हो रहा था । वे परस्पर बातें कर रहे थे । प्रो. गुणधर ने कहा – “सेठजी को अचानक यह क्या हो गया? इतना बड़ा परिवर्तन ! जो घर से केवल कौतूहलवश एक दिन को आये थे, जिन्हें ऐसे तात्त्विक प्रवचनों में कोई खास रुचि नहीं थी, वे केवल एक घंटे के प्रवचन से इतने अधिक प्रभावित हो गये हैं। ऐसा क्या जादू कर दिया सेठजी पर ज्ञानेशजी ने ? " दूसरे वरिष्ठ विद्वान विद्याभूषण बोले- “अरे भाई ! ज्ञानेश के प्रवचनों में तो जादुई असर है ही, व्यवहार ही मधुर है और स्वभाव भी मिलनसार है । देखो न ! छोटे से छोटे बालकों और बड़े से बड़े विद्वानों 56 हार में भी जीत छिपी होती है १०९ को कितने स्नेह और आदरपूर्वक बुलाते हैं, प्रेमालाप करते हैं, मानो करुणा और स्नेह की साक्षात् मूर्ति हों । प्रवचनों के बीच-बीच में श्रोताओं का नामोल्लेख करके सजग तो करते ही हैं, उन्हें महत्त्व देकर, उनमें अपनापन भी स्थापित कर लेते हैं। उनके सुख-दुःख में भागीदारी निभाते हैं।” ज्ञानेश को सेठजी की धार्मिक अज्ञानता पर तरस तो आ ही रहा था; अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने प्रवचन के बीच में ही करुणा के स्वर में कहा- “अरे सेठ ! सत्तर- बहत्तर बसन्तें तो देख ही ली होंगी आपने? मनुष्य की जिन्दगी ही कितनी है ? अधिक अधिक शतायु हुए तो बीस-पच्चीस वर्ष ही और मिलेंगे, भरोसा तो एक पल का भी नहीं है। मान लो दस-बीस वर्ष मिल भी गये तो वे भी ‘अर्द्धमृतक सम बूढ़ापनो' में गुजरने वाले हैं। यदि तत्त्वज्ञान के बिना ही हमारा यह जीवन चला गया, यदि हम यह मानव जीवन पाकर भी धर्म नहीं समझ पाये; तो फिर हमें अगला जन्म कहाँ / किस योनि में लेना पड़ेगा, इसकी खबर है? दिन-रात भक्ष्य - अभक्ष्य खाते-पीते हमारे जो अशुभ भाव रहा करते हैं, उनका क्या फल होगा ? इस बात पर विचार किया कभी हमने ? यदि हम मरकर मच्छर बन गए तो हमारे बेटे ही हम पर डी. डी. टी छिड़ककर मार डालेंगे। यदि अपने घर की खाट में खटमल हो गए तो हमारे बेटे-बहू ही कैरोसीन छिड़ककर हमारी जान ले लेंगे। यदि कुत्ताबिल्ली के पेट से पैदा हो गये तो नगरपालिकाओं द्वारा पकड़वाकर जंगल में छुड़वा दिये जायेंगे। यदि गाय-भैंस-बकरी आदि पशु हो गये तो क्या वहाँ रहने को एयरकंडीशन, मच्छरों से बचने को गुडनाइट और सोने के लिए डनलप के गद्दे मिलेंगे ? अरे ! खाने को मालिक जैसी सड़े-गले भूसे की सानी बनाकर रख देगा, वही तो खानी पड़ेगी, बेकार होने पर बुढ़ापे में बूचड़खाना भेज दिये जाओगे।
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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