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________________ विचित्र संयोग : पुण्य-पाप का ये तो सोचा ही नहीं टिका है।' 'खुरपी को भी टेढ़ा बैंट तो मिलता ही है। इसी आशावादी दृष्टिकोण से और आत्महत्या के पाप के भय ने रूपश्री को आत्मघात करने से बचा लिया। 39 जिसप्रकार पाँचों उंगलियाँ एक जैसी नहीं होती; उसीप्रकार सभी व्यक्ति भी एक जैसे नहीं होते। एक युवक ऐसा भी था, जो पढ़ालिखा, प्रतिभाशाली, देखने-दिखाने में आकर्षक व्यक्तित्व का धनी और अमानवीय दोषों से कोसों दूर था। धन की चाह और जरूरत किसे नहीं होती? परन्तु किसी की मजबूरी का अनुचित लाभ उठाना उसकी वृत्ति में नहीं था। प्रथम परिचय में ही वह रूपश्री के बाह्य व्यक्तित्व से आकर्षित हो गया। धीरे-धीरे परिचय प्रीति में बदल गया। वह रूपश्री की सरलता, सज्जनता तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में सहनशीलता तथा विनयशीलता जैसे गुणों से अधिक प्रभावित था । इन्हीं सब कारणों से वह उसके मन में बस गई थी। __यदि वह चाहता तो किसी भी बड़े घर से उसे भी दो-चार लाख मिलना कोई बड़ी बात नहीं थी; पर यह उसके खून में ही नहीं था। रूपश्री भी उसे देखते ही, अनजाने में ही उसकी ओर सहज आकर्षित होती चली गयी, मानो उसके साथ उसका जन्म-जन्म का रिश्ता हो। नवयुवक के पिता ने भी अन्तर्जातीय संबंध होते हुए भी बेटे रूपेश की भावनाओं को पहचान कर कुटुम्ब परिवार की असहमति और अन्तर्जातीय संबंध के विरोध की भी परवाह न करके रूपश्री को अपने घर की बहू बना लिया। रूपेश का बाह्य व्यक्तित्व तो रूपवान था ही, वह सदाचारी और धन-सम्पन्न भी था। रूपेश जैसे पति को पाकर रूपश्री मन ही मन प्रसन्न हो रही थी; पर अचानक उसके जाग्रत मानस पटल पर बचपन की अर्द्ध जाग्रत मानस पर पड़ी वह स्मृति-रेखा उभर आई, जब खेलखेल में उसका गुड्ढा क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। इसकारण उसका मन कुछ-कुछ खिन्न हो गया। तत्काल उसने अपने मन को समझाया “वह तो गुड्डू-गुड्डियों का खेल था, खेलों में तो ऐसा होता ही है, उसमें खिन्न होने की क्या बात है।" यह सोचकर वह संभल गई। यद्यपि उस समय वह खूब रोई थी; क्योंकि तब लड़कपन जो था । उस समय वह खेल को ही सचमुच की शादी समझती थी, इसकारण उस समय उसका रोना स्वाभाविक ही था। दूल्हा दुर्घटनाग्रस्त हो जाये और दुल्हन की आँख में आँसू भी न आयें - ऐसा कैसे हो सकता था ? रूपेश तो स्वभाव से ही धार्मिक प्रवृत्ति का था, रूपश्री भी सरलस्वभावी थी, भारतीय नारी के सभी गुण उसमें थे। पति की परछाँई बनकर रहना ही वह अपना धर्म समझती थी। रूपेश ने सलाह के रूप में रूपश्री से कहा - "गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के पूर्व सर्वप्रथम किसी ऐसे तीर्थ की वंदनार्थ जाने का कार्यक्रम क्यों न बनाया जाये, जिसमें एक पंथ दो काज' हो जायें ? तीर्थवंदना भी हो जाये और साथ में घूमना-फिरना भी जिसे आज की भाषा में लोग हनीमून कहते हैं।" । रूपश्री ने रूपेश की बात का समर्थन करते हुए कहा -“मैं आपकी इस सलाह से पूर्ण सहमत हूँ। आपका विचार उत्तम है। 'हनीमून' के नाम पर कोरे आमोद-प्रमोद और सैर-सपाटे से क्या लाभ ? और हनीमून का प्रयोजन और उद्देश्य भी शादी के बाद प्रथम परिचय को
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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