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________________ विचित्र संयोग : पुण्य-पाप का ये तो सोचा ही नहीं जब पहले किया पाप का फल सामने आता है तब परिस्थिति बदलते देर नहीं लगती। जो अपने गौरव के हेतु होते हैं, सुख के निमित्त होते हैं; वे ही गले के फन्दे बन जाते हैं। रूपश्री का शारीरिक सौन्दर्य, जिसपर उसके माता-पिता एवं कुटुम्ब-परिवार को गर्व था, आज वही सौन्दर्य उसके लिए धर्मसंकट बन गया है। दुर्व्यसनों के कारण पिता की सामाजिक प्रतिष्ठा धूलि-धूसरित एवं प्रभाव क्षीण हो जाने से असामाजिक तत्त्वों की पड़ती काली छाया और गिद्धदृष्टि की शिकार हो जाने की आशंका से रूपश्री सशंक और भयातुर भी रहने लगी थी। अपने शील की सुरक्षा में सतत् सावधान रूपश्री अपने सौभाग्य की प्रतीक्षा कर रही थी। ___ वह सोचती - लड़कों ने तो जिस कुल में जन्म ले लिया, उन्हें पूरा जीवन वहीं बिताना पड़ता है; पर लड़कियाँ इस मामले में सौभाग्यशालिनी होती हैं। उन्हें जीवन में दो बार भाग्योदय का अवसर प्राप्त होता है। एक बार तो तब, जब वह किसी बड़े घर में जन्म लेकर बड़े बाप की बेटी बनती है। कदाचित् दुर्भाग्यवश किसी साधारण घर में जन्म लेना पड़ गया तो पुन:दूसरा भाग्योदय का अवसर उसे तब मिलता है, जब उसकी शादी होती है, वह किसी बड़े घर की बहू बनती है। __ मेरा पहला अवसर तो यों ही चला गया। बड़े घर में जन्म लेने के बावजूद मुझे उसका लाभ नहीं मिल पाया । मेरे जन्म लेने के साथ ही मेरे पिताश्री कुसंगति में पड़ गये। धीरे-धीरे एक-एक दुर्व्यसन से घिरते चले गये और अपने ही लक्षणों से बीस वर्ष के अन्दर ही स्वर्ग जैसे सदन के निवासी सड़क पर आकर खड़े हो गये। अब दूसरा अवसर शेष है । पर यह आशा भी दुराशा मात्र लगती है। इसमें भी अधिकांश तो निराशा ही हाथ में आनेवाली है; क्योंकि दहेज दानव इस संभावना पर भी संभवत:पानी फेर देगा। रूपश्री का यह सोचना गलत भी नहीं है; क्योंकि भले ही वह सुन्दर है, पर उसकी सुन्दरता से न तो श्रीमन्तों का पेट भरता है और न पेटी ही। दूसरे, लक्ष्मीवालों की प्रतिष्ठा का प्रश्न भी तो आड़े आ जाता है। ___ सैंकड़ों रिश्ते आये, पर इन्हीं सब कारणों से अब तक कहीं भी पार नहीं पड़ी, बात नहीं बनी। सभी का यही कहना था - लड़की सुन्दर है, विनयवान भी है, यह बात तो सर्वोत्तम है; परन्तु...। बार-बार योग्य-अयोग्य सभी तरह के व्यक्तियों के सामने अपना प्रदर्शन करते और बेतुके, बनावटी, ऊँट-पटांग प्रश्नों के उत्तर देते-देते तथा अपमान के चूंट पीते-पीते बेचारी रूपश्री इतनी ऊब गई थी कि उसे अब ऐसे दुःखद जीने से मरना सुखद लगने लगा था। पर पता नहीं, क्या सोच-सोचकर वह अपनी जीवित लाश को ढो रही थी। ___ उसने एक बार प्रवचन में सुना था कि - "आत्मघाती महापापी - आत्मघात करनेवाला महापापी होता है। आत्मघात करनेवाले की सुगति नहीं होती, कुगति ही होती है; इसीकारण उसने निश्चय कर लिया कि 'जो पूर्व जन्म में मैंने पाप कर्म किए होंगे, उन्हें भोगना तो पड़ेगा ही; फिर इसी जन्म में ही क्यों न भोग लिये जायें ? बे-मौत मरने से ये कर्म मेरा पीछा छोड़ने वाले तो हैं नहीं। अतः भला-बुरा जो भी हो रहा है, उसे मात्र जानते-देखते चलो। उसमें तन्मय मत होओ।" यही सब तो सुना था उस दिन प्रवचन में। कहते हैं - 'घूरे के भी दिन फिरते हैं' तथा 'आशा से आसमान
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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