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________________ यदिचूक गये तो हुए, वे ही देवरूप में आराध्य माने गये। शेष सबको पुराण पुरुष के रूप में आदरपूर्वक स्मरण किया गया तथा उनके आदर्श चरित्रों से मानव सबक सीखें; एतदर्थ प्रथमानुयोग के रूप में उनके आदर्श चरित्र भी लिखे गये। -- प्रथमानुयोग अर्थात् कथा ग्रन्थों में संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल, महन्त पुरुषों की शुभाशुभ प्रवृत्ति आदि निरूपण से संसारी-अज्ञानी जीवों को पुण्य-पाप से हटाकर धर्म में लगाया जाता है। यद्यपि महन्त पुरुषों में राजाओं की सुख-दुःख की कथायें ही अधिक हैं; पर सर्वत्र प्रयोजन पाप को छुड़ाकर धर्म में लगाने का ही प्रगट करते हैं। पाठक पहले उन महन्त पुरुषों की कथाओं की जिज्ञासा से उन्हें पढ़ते हैं और फिर पाप को बुरा जानकर एवं धर्म को भला जानकर धर्म में रुचिवन्त होते हैं। हरिवंश कथा से सूर्य हैं। भगवान नेमिनाथ के साथ नारायण श्रीकृष्ण एवं उनके भाई बलदेव के आदर्श चरित्र भी इसमें हैं। प्रसंगानुसार पाण्डवों तथा कौरवों की लोकप्रिय कथायें भी इसमें चित्रित हो गई हैं। इसमें श्रीकृष्ण के पिता वासुदेव एवं पुत्र प्रद्युम्नकुमार, भानुकुमार, शम्बकुमार एवं चारुदत्त तथा पाँचों पाण्डवों और कौरवों का चरित्र अपना पृथक स्थान रखता है। -- प्रथमानुयोग (कथानुयोग) में अव्युत्पन्न-अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि जीवों) को तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि ६३ शलाका पुरुषों के चरित्रों के माध्यम से अध्यात्म और आचरण की शिक्षा दी जाती है। प्रथमानुयोग में कथानक के साथ संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल एवं महन्त पुरुषों की प्रेरणादायक प्रवृत्तियों के निरूपण से जीवों के धर्म में लगाया जाता है। जो जीव अल्पबुद्धि होते हैं, वे भी इन सबसे प्रेरणा पाकर धर्मसन्मुख होते हैं; क्योंकि अल्पबुद्धि सूक्ष्म निरूपण को तो समझ नहीं सकते, लौकिक कथाकहानियों में तो केवल विकथायें होने से पाप का ही पोषण होता है; परन्तु प्रथमानुयोग के कथा प्रसंगों में शलाका पुरुषों के चरित्र चित्रण के माध्यम से जहाँ-तहाँ प्रसंग पाकर पाप को छुड़ाकर धर्म में लगाने का ही प्रयोजन प्रगट करते हैं। मृत्यु के समय श्रीकृष्ण के मुखारबिन्द से जो अन्तिम उद्गार निकलते हैं, उनसे उनकी महिमा बहुत ही ऊँची उठ जाती हैं। जिसे तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हुआ हो, जो स्वभाव से तो परमात्मा स्वरूप हैं ही, पर्याय में भी परमात्मा बनने की जिसने तैयारी कर ली हो, उसके परिणामों में जो समता होनी चाहिये वह श्रीकृष्ण के भावों में अन्त तक रही है। जैनपुराणों में प्रतिपादित विश्वव्यवस्था छहद्रव्यों के रूप में अनादिअनंत एवं स्व-संचालित है। इस विश्व को किसी ने बनाया नहीं है। यह कभी नष्ट भी नहीं होता । मात्र इन द्रव्यों की अवस्थायें बदलती हैं, इसप्रकार द्रव्य-उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। द्रव्य जाति की अपेक्षा ६ हैं और संख्या की अपेक्षा देखें तो जीवद्रव्य अनन्त हैं, पुद्गलद्रव्य अनन्तानंत है, धर्म, द्रव्य, अधर्म द्रव्य एवं आकाशद्रव्य एक-एक हैं और कालद्रव्य असंख्यात है। इनमें जीव चेतन है, शेष पाँच अचेतन हैं। पुद्गल मूर्तिक है, शेष पाँच अमूर्तिक हैं। काल एक प्रदेशी हैं, शेष पाँच बहु प्रदेशी हैं, इन पाँचों को बहुप्रदेशी होने से अस्तिकाय भी कहते हैं। इनके कर्ता-कर्म-करण-सम्प्रदानअपादान और अधिकरण के रूप में स्वतंत्र परिणमन होता है, इस परिणमन को ही पर्याय, हालत, दशा या अवस्था कहते हैं। -- वीतरागी देव, निर्ग्रन्थ गुरू और अनेकान्तमय वस्तुस्वरूप की प्रतिपादक, स्याद्वादमयी जिनवाणी ही सच्चे-देव-शास्त्र-गुरु की श्रेणी में आते हैं। इनके सिवाय अन्य कोई भी मुक्ति के मार्ग में पूज्य एवं आराध्य नहीं है। -- -- हरिवंश कथा की कथावस्तु में वर्णित तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ का जीवन महान आदर्श त्याग का जीवन है। वे हरिवंश गगन के प्रकाशमान
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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