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________________ मुक्ति का मार्ग अनध्यवसाय - 'यह क्या है' या कुछ है' - केवल इतना अरुचि और अनिर्णयपूर्वक जानने को अनध्यवसाय कहते हैं। जैसे - आत्मा कुछ होगा, रास्ते में चलते हुए किसी मुलायम पदार्थ के स्पर्श से यह जानना कि कुछ है। जिज्ञासु - अब सम्यक्चारित्र के लिए भी बताइये । प्रवचनकार - चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात्। सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ।।३९।। समस्त सावध योग से रहित,शुभाशुभभावरूप कषायभाव से विमुक्त, जगत से उदासीन रूप निर्मल आत्मलीनता ही सम्यक्चारित्र है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्वारित्र को रत्नत्रय भी कहते हैं और यही मुक्ति का मार्ग है। __ शंकाकार - तो क्या रत्नत्रय धारण करने से मुक्ति की ही प्राप्ति होगी, स्वर्गादिक की नहीं? प्रवचनकार - भाई ! स्वर्गादिक तो संसार है, जो मुक्ति का मार्ग है, वही संसार का मार्ग कैसे हो सकता है? स्वर्गादिक की प्राप्ति तो मुक्ति-मार्ग के पथिक को होनेवाले हेयरूप शुभभाव से देवायु आदि पुण्य का बंध होने पर सहज ही हो जाती है। रत्नत्रय तो मुक्ति-मार्ग है, बंधन का मार्ग नहीं। शंकाकार - तो फिर रत्नत्रय के धारी मुनिराज स्वर्गादिक क्यों जाते हैं ? प्रवचनकार - रत्नत्रय तो मुक्ति का ही कारण है, पर रत्नत्रयधारी मुनिवरों के जो रागांश है, वही बंध का कारण है। शुभभावरूप अपराध के फल से ही मुनिवर स्वर्ग में जाते हैं। शंकाकार-शुभोपयोग को अपराध कहते हो? प्रवचनकार - सुनो भाई ! मैं थोड़े ही कहता हूँ। आचार्य अमृतचन्द्र ने स्वयं लिखा है ननु कथमेवं सिद्धयति देवायुः प्रभृति सत्प्रकृतिबन्धः । सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम् ।।२१९।। यदि रत्नत्रय बंध का कारण नहीं है तो फिर शंका उठती है कि रत्नत्रयधारी मुनिवरों के देवायु आदि सत्प्रकृतियों का बंध कैसे होता है ? उक्त प्रश्न के उत्तर में आगे लिखते हैं - वीतराग-विज्ञान भाग -३ रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ।।२२०।। रत्नत्रय धर्म निर्वाण का ही कारण है, अन्य स्वर्गादिक का नहीं। मुनिवरों को जो स्वर्गादिक के कारण पुण्य का आस्रव होता है, उसमें शुभोपयोग का ही अपराध है। शंकाकार - उन मुनिराजों के रत्नत्रय भी तो था, फिर उन्हें बंध क्यों हुआ? प्रवचनकार - जितने अंशों में रत्नत्रय है, उतने अंशों में अबंध है। जितने अंशों में रागादिक है, उतने अंशों में बंध है। कहा भी है - येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।।२१२।। येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बंधन नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।।२१३।। येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ।।२१४॥ इस आत्मा के जिस अंश में सम्यग्दर्शन है, उस अंश (पर्याय) से बंध नहीं है तथा जिस अंश से राग है, उस अंश से बंध होता है। जिस अंश से इसके ज्ञान है, उस अंश से बंध नहीं है और जिस अंश से राग है, उस अंशसे बंध होता है। जिस अंश से इसके चारित्र है, उस अंश से बंध नहीं है और जिस अंश से राग है, उस अंश से बंध होता है। अत: यदि हमें बंध का अभाव करना है अर्थात् दुःख मेटना है तो रत्नत्रयरूप परिणमन करना चाहिए । यही एक मात्र सांसारिक दु:खों से छूटने के लिए सच्चा मुक्ति का मार्ग है। प्रश्न - १. मुक्ति क्या है और मुक्ति का मार्ग (मोक्षमार्ग) किसे कहते हैं ? २. निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्र की परिभाषाएँ दीजिए? ३. सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का उपाय क्या है ? ४. संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय की परिभाषाएँ दीजिए? ५. रत्नत्रय स्वर्गादिक का कारण क्यों नहीं है ? सतर्क उत्तर दीजिये?
SR No.008388
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size131 KB
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